Wednesday 25 November 2009

अकाल में सारसः एक व्याख्या


केदारनाथ सिंह की 61 कविताओं का संग्रह 'अकाल में सारस' 1988 में आया जिसमें सन् 1983 से 1987 तक की कविताएं संकलित हैं। इस संग्रह में उनकी कविताओं की उत्कष्टता पहले से बढ़ी है और कथ्य तथा रूप दोनों ही स्तरों पर इसमें उल्लेखनीय परिवर्तन घटित हुए हैं। पहले से परिवक्व पहले से अधिक प्रभावी। अर्थ परिवर्तन की जो प्रक्रिया उनमें शुरू हुई थी लगता है कि यही वह गंतव्य है जहां वे पहुंचना चाहते थे। उनका व्यक्तिगत जीवन, विश्व साहित्य का सतत अध्ययन और समूचा विश्व होना चाहने की चाहत यहां एक ऐसी काव्य दृष्टि का विकास करने में सक्षम हुई है जो हिन्दी व भारतीय कविता में किसी हद तक विरल है। इस संग्रह में मनुष्य की अक्षय उर्जा व अदम्य जिजीविषा है और परम्परा से मिली दिशाएं हैं जिनका संधान उन्होंने आवश्यकतानुसार अपनी पिछली ज़िन्दगी की ओर मुड़कर भी किया है। वे अपने काव्य सृजन में आगे तो बढ़ते रहे हैं किन्तु पीछे का नष्ट नहीं करते बल्कि उसकी भी कोई न कोई लीक बची रहती है जहां आवश्यकतानुसार वे लौटते हैं। कवि केदार कविता के नये अनजान सफर पर बार-बार जाते हैं तो वहां पीछे छूटा हुआ बहुत कुछ भी काम का लगता है और वे पीछे छूटे हुए को भी आगे की यात्रा का पाथेय बना लेते हैं। 'केदारनाथ सिंह ने फिर कुछ पुरानी लयों पर पुनर्जीवित किया है। एक कविता निराला को याद करते हुए उन्हीं की ज़मीन पर लिखी गयी है।' ( कमल, अरुण, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ 223) भौतिक रूप से वे महानगर में हैं तो मानसिक रूप में लोक की ओर पहले से अधिक आकृष्ट हुए हैं। उन्हें इस बात का लगातार एहसास होता रहा है कि लोक -जीवन ही उनकी काव्य-भूमि और मनोभूमि है जिसे लेकर उन्हें दिगंत पार जाना है। जड़ों की ओर लौटना ही उनमें ऊर्जा का संचार करता है और ताज़गी भरता है। वे अपने साथ कुछ सूत्र लेकर बढ़े हैं और समय आने पर उन्हें गुनते हैं जो उन्हें असंजस से उबारता है और दिग्भ्रमित नहीं होने देता। आधुनिकता के देशज स्वरूप का विकास वे शुरू से धीरे-धीरे कर रहे थे और वह नयी ऊंचाइयों तक जाता है। पहली की कविता में वे इस संग्रह की उस बात को कहते हैं जो इसकी केन्द्रीय धुरी है। इसके पहले भी उनके कतिपय काव्य संग्रहों में पहली कविता ने पुस्तक की भूमिका का कार्य किया है। इसमें वे कहते हैं-
'जैसे चीटियां लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई अड्डे की ओर
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा।' (सिंह, केदारनाथ, अकाल में सारस, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1988, मातृभाषा, पृष्ठ 11)
यह जो मेरी भाषा का जिक़्र है वह केदार की वह लोक भूमि है जहां उनकी रचनात्मकता का अजस्र स्रोता है। जितना ही वे अपनी जड़ो की ओर लौटते हैं बाह्य संसाकर का भी उसी अनुपात में विस्तार होता जाता है।
यहीं केदार जी की उस बीस वर्ष की चुप्पी का राज भी खुलता है जो 'अभी बिल्कुल अभी' से 'ज़मीन पक रही है' के बीच है। रचनाशीलता उनके लिए अपनी भाषा के पास लौटना है और व्यवस्था के ख़िलाफ चुप्पी उनके प्रतिकार का अन्दाज़। साठोत्तरी दौर में जब कवियों के कई-कई संग्रह निकल रहे थे और शिल्प व कथ्य को लेकर नित नये आंदोलन छिड़े थे उन्होंने चुप्पी की शरण ली थी। केदार जी के यहां अस्वाभाविक परिस्थितियों में रचनाशीलता सम्भव नहीं है। वे तब लिखते हैं 'जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है जीभ, दुखने लगती है आत्मा।' (वही)
केदार जी के प्रकृति का भयावह रूप और विभीषिका प्रायः नहीं है। किन्तु इस संग्रह में अकाल पर उनकी दो कविताएं हैं शीर्षक कविता 'अकाल में सारस' और 'अकाल में दूब'। अकाल पर केदार जी के अग्रज कवि नागार्जुन ने 'अकाल और उसके बाद' तथा समकालीन कवि रघुवीर सहाय ने 'अकाल' कविता लिखी है। अकाल से जन जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को ही इन कवियों ने चित्रित किया है। विषय वस्तु एक होते हुए भी अकाल पर इन तीनों कवियों का भावबोध अलग है और तीनों का अपना-अपना विशिष्ट अन्दाज़ है और वस्तुजगत पर प्रतिक्रिया की अपनी शैली, अपनी भाषा। नागार्जुन अकाल के बाद के सामान्य जीवन से अकाल की स्थितियों की भयावहता को उभारते हैं तो रघुवीर सहाय अकाल के जिम्मेदार कारकों के प्रति गंभीर हैं।
केदार जी की अकाल पर लिखी दोनों कविताओं में उनकी नाटकीय शैली विद्यमान है। 'अकाल में दूब' में पूरा दृश्य एक समारोह जैसा। चित्र और स्थितियां बोलती हैं मंत्रणा करती हैं और अकाल में यदि दूब बची है तो जीवन की आशा भी बची है के निष्कर्ष तक कविता पाठक को पहुंचाती है। यह जीवन की वह कुंजी है जिस तक केदार जी की कई कविताएं पहुंचतीं है पहुंचाने की कोशिश करती हैं। 'अकाल में सारस' कविता में सुदूर प्रदेशों से सारस पानी की तलाश में आते हैं। एक बुढ़िया अपने आंगन में एक जलभरा कटोरा रखती है। सारस उस कटोरे को देखते तक नहीं और उड़ जाते हैं। एक पूरा दृश्य। एक फ़िल्म की पटकथा सी गतिविधियों की बारीक से बारीक घटना दर्ज़ है। 'केदार वर्णन नहीं चित्रण करते हैं। प्रायः उनकी संवेदना देखे हुए को किसी शॉट की तरह कम्पोज़ करने के करीब पहुंचने लगती है। (प्रसाद, गोविन्द, मिट्टी की रोशनी, सम्पादकः त्रिपाठी, अनिल,शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 105)
दरअसल यह कविता भौतिक अर्थ में अकाल पर होते हुए भी अर्थ के अतिक्रमण की कविता है और वह शहर को दया या घृणा का पात्र मानने की टिप्पणी के साथ ख़त्म होती है। शहर में जीवन तत्त्व पानी की उपलब्धता के बारे में सारसों के अनुमान को वे यूं बयां करते हैं-
'पानी को खोजते
दूर-देसावर तक जाना था उन्हें
सो, उन्होंने गर्दन उठाई
एकबार पीछे की ओर देखा
न जाने क्या था उस निगाह में
दया कि घृणा
पर एक बार जाते-जाते
उन्होंने शहर की ओर मुड़कर
देखा ज़रूर।'
(अकाल में सारस/ पृष्ठ 23)
हालांकि इस कविता में भी केवल निराशा नहीं है। संकेत है-
'अचानक
एक बुढ़िया ने उन्हें देखा
ज़रूर ज़रूर
वे पानी की तलाश में आये हैं
उसने सोचा
वह रसोई में गयी
और आंगन के बीचोबीच
लाकर रख दिया
एक जलभरा कटोरा।'
बुढ़िया का पानी की तलाश में आये सारसों के लिए जलभरा कटोरा रखना ही अकाल में दूब की स्थिति है। यहां संवेदना के अकाल की स्थिति में दूब है। 'लोक संवेदना में अकाल के दिनों में दूब पानी का, जीवन का, प्राण तत्त्व का पर्याय है।'(रोहिताश्व, मिट्टी की रोशनी, सम्पादकः त्रिपाठी, अनिल,शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 74) 'अकाल में दूब' कविता में इसकी बानगी देखें-
'कहते हैं पिता
ऐसा अकाल कभी नहीं देखा
ऐसा अकाल कि बस्ती में
दूब तक झुलस जाय
सुना नहीं कभी
x x x x x x x x x
अचानक मुझे दिख जाती है
शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच
एक हरी पत्ती
दूब है
हां-हां दूब है-
पहचानता हूं मैं
लौटकर यह खबर
देता हूं पिता को
अंधेरे में भी
दमक उठता है उनकी चेहरा
है-अभी बहुत कुछ है
अगर बची है दूब।'
(अकाल में दूब, अकाल में सारस, पृष्ठ 20/21)
पहली नज़र में किसी को लग सकता है कि विषय वस्तु के चयन के लिहाज़ से ये कविताएं यथार्थपरक होते हुए भी वह अन्ततः कलारूप को ही अधिक तरज़ीह देती प्रतीत होती है, किन्तु ऐसा है नहीं। दरअसल बाह्य उपकरणों, कवि के औज़ारों को ही कथ्य मान लेने से ऐसा भ्रम होता है केदार जी के यहां वस्तु जगत एक भाव जगत तक ले जाने का माध्यम है यहां भी ऐसा ही हुआ है। दूसरे कवि का वस्तु जगत के प्रति गहरा लगाव, उसके स्वभाव और व्यवहार के प्रति गहन अध्ययन और चिन्ता यह भ्रम पैदा कर देता है कि वही मुख्य अभिप्रेय हैं उपादान नहीं। केदार जी ने अपने कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए अकाल में सारस कविता में फ़ेटेसी का सहारा लेते हैं। यही कारण है कि विनोद दास जैसे कवि आलोचक लिखते हैं 'अकाल के भयावह और जटिल यथार्थ रूपों के अन्वेषण के बजाय इस कविता के विन्यास में एक रोमानी नाटकीयता अन्तर्निहित है। पूरा प्रसंग एक समारोह सदृश्य लगता है। शब्दमोह और चित्रमोह के चलते वास्तविकता पर कवि की पकड़ ढीली पड़ जाती है। दरअसल यह कवि की भाव-बोध की दुर्बलता है।' (कविता यही करती है, दास, विनोद, पहल पुस्तिका/अंक-37, 763, अग्रवाल कालोनी, जबलपुर, पृष्ठ 39)
इन दोनों कविताओं के बारे में रोहिताश्व की टिप्पणी इन दोनों कविताओं के मर्म के अधिक करीब पड़ती हैं-'अकाल में दूब कविता विपरीत स्थितियों में, सूखे अकाल की स्थिति में दूब के अगर बचे रहने की गवाही देती है तो यह अकाल की विषमता के समानान्तर आशा-विश्वास और जीवन सौन्दर्य की अनुभूति है, यहां नश्वरता के बरक्स अनश्वरता का सौन्दर्यबोध गतिशील है। वस्तुतः 'अकाल में सारस' मानवीय विसंगतियों को रेखांकित करने वाला ऐन्द्रिय जगत की संवेदना के ख़ात्मों का वह सौन्दर्यबोधी परिदृश्य है जो हमें उस अभाव की पूर्ति हेतु मनुष्यता और रागात्मकता की सक्रियता अपनाने का संदेश देता है।' (रोहिताश्व, मिट्टी की रोशनी, सम्पादकः त्रिपाठी, अनिल,शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 76)
'अकाल और सारस' में जीवन और मृत्यु को लेकर कई कविताएं हैं जो कैंसर से जूझती उनकी पत्नी के संदर्भ से जुड़ी होने के कारण आत्मपरक होते हुए भी अपने शिल्प व कथ्य के वैशिष्ट के चलते उतनी ही सार्वजनीन भी हैं। इन कविताओं में मृत्यु के पंजा लड़ाती अड़ियल सांस है और जीवन मृत्यु को लेकर कवि के मन में गहराई से उठते प्रश्न व उनका सामना करने का जीवट। कुछ कविताएं प्रत्यक्ष है तो कुछ में परोक्ष रूप से जीवन-मृत्यु के प्रश्नों से जुड़ी हुई। न होने की गंध, अड़ियल सांस, पर्वस्नान, सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से ग़ुजरते हुए, लोककथा जैसी कविताओं के केन्द्र में मृत्यु भी है। मृत्यु के बाद एक टीस न होने की गंध में तब्दील हो जाती है-
'सबसे अधिक खाली थे हमारे कंधे' (न होने की गंध, अकाल में सारस, पृष्ठ45)
इसके लिए बस्ती में एक गहरी उदासी थी
'यों हम लौट आये
जीवितों की एक लम्बी उदास बिरादरी में' (न होने की गंध, अकाल में सारस, पृष्ठ46)
अभाव को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने होने को न होने और न होने को होने में तब्दील कर दिया है-
'कुछ नहीं था
सिर्फ़ कच्ची दीवारों
और भीगी खपरैलों से
किसी के न होने की
गंध आ रही थी'(न होने की गंध, अकाल में सारस, पृष्ठ 46)
इन कविताओं में स्थितियों का वर्णन है, जो स्थिति की तल्खी को शिद्दत से महसूस करने पर पाठक को विवश कर देता है। 'केदारनाथ सिंह चीज़ों का वर्णन ठीक-ठीक करने वाले हिन्दी के विरले कवियों में से हैं और चीज़ों का ठीक-ठीक वर्णन जहां एक ओर सौन्दर्य और उल्सास की ओर ले जाता है वहां जीवन की विसंगतियों, एब्सर्डिटीज की ओर भी ले जाता है।' (विष्णु खरे, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ 240)
मृत्यु के सवालों से इस संग्रह में वे बेतरह जूझते हैं। ज़्यादातर पत्नी की मृत्यु पर लिखी इस संग्रह की कविताओं के क्रम में ही वे अपने जीवन के बारे में सोचते हैं जिसमें मृत्यु की बात प्रकारांतर से विद्यमान है। मृत्यु के सम्बंध में खयाल जीवन के खयाल से परोक्ष रूप से जुड़ा हुआ है किसी के लिए मृत्यु क्या है यह जानने के लिए यह जानना कम नहीं है कि उसके लिए जीवन क्या है-
'मेरा जीवन
एक दोना है
सींक से बुना हुआ पत्तों का दोना
जिसमें मेरे जन्म के दिन से ही
टप् टप् टपक रही है धूप
मैं उसे पीता हूं
और जितना पीता हूं
उतना ही बूंद-बूंद भरता जाता है मेरा दोना
दोना ही तो है
कोई एक दिन उठाकर फेंक देगा बाहर
पर उसी को लेकर अपने दोनों हाथों में
मैं सूर्य से भी ज़्यादा सम्पन्न हूं
इस पृथ्वी पर।' (जन्म दिन की धूप में, अकाल में सारस, पृष्ठ 64-65)
केदार जी के लिए सूर्य से भी अधिक सम्पन्न होने की बात है इसलिए मृत्यु उन्हें अधिक त्रासद और ससह्य है। विपन्नकारी।' मृत्यु की चेतना, ज़िन्दगी के तिल-तिल को सम्भाल कर-जुगा कर जीने की उत्कट लालसा, उनकी अनेक कविताओं में देखने को मिलती है।' (सिंह, भगवान, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ 77)
जीवन मृत्यु से जुड़ी एक और कविता है इस संग्रह में 'एक दिन भक् से'-
'एक दिन भक् से
मूंगा मोती
हल्दी प्याज
कबीर निराला
झींगुर कुहासा
सभी के आशय स्पष्ट हो जायेंगे
जैसे धूप
खपरैलों पर
जाते-जाते यकायक
स्पष्ट हो जाती है।' (एक दिन भक् से,सिंह केदारनाथ, अकाल में सारस, पृष्ठ 83)
लोकमान्यता है कि मृत्यु के पूर्व किसी व्यक्ति को सब कुछ साफ-साफ दिखायी देने लगता है सारे आशय स्पष्ट हो जाते हैं। इसी मनोभूमि पर एक कालजयी कृति सी, टहलते हुए बूढ़े कविताओं भी हैं जिनमें जीवन मृत्यु के प्रश्न विद्यमान हैं।
हालांकि मृत्यु को स्वाभाविक तौर पर स्वीकारने का प्रयास भी उन्होंने किया है। प्रकृति की अन्य स्वाभाविक प्रक्रियाओं में से मृत्यु को एक मानने की उपक्रम दीखता है-
'जैसे आकाश में तारे
जल में जलकुम्भी
हवा में आक्सीजन
पृथ्वी पर उसी तरह
मैं
तुम
हवा
मृत्यु
सरसों के फूल।' (फलों में स्वाद की तरह, अकाल में सारस, पृष्ठ 15)
इन पंक्तियों में मृत्यु का दंश नहीं है। मृत्यु के सम्बंध में दर्शन है जो अन्य को समझाने के उपक्रम में रचा प्रतीत होता है। 'मृत्यु' के बाद 'सरसों का फूल' लिखकर उन्होंने मृत्यु जैसे गंभीर मसले को प्रकृति की साधारण और अनिवार्य प्रक्रिया का हिस्सा बनाने का प्रयास किया है। कोई भी स्थिति असह्य नहीं है। प्रिय अप्रिय सब समान भाव से ग्रहण करने की मनःस्थिति का द्योतक है। इस कविता में आगे वे लिखते हैं-
'जैसे दियासलाई में काठी
घर में दरवाज़े
पीठ में फोड़ा
फलों में स्वाद
उसी तरह
उसी तरह।' ( (फलों में स्वाद की तरह, अकाल में सारस, पृष्ठ 15)
पीड़ा को स्वाभाविक बनाने की प्रयास यहां भी है वरना 'पीठ में फोड़ा' जैसी अस्वाभाविक स्थिति को 'फलों में स्वाद' जैसी स्वाभाविक स्थिति के क्रम में नहीं जोड़ते। पीठ में रीढ़ स्वाभाविक है किन्तु फोड़ा नहीं। साफ़ पता चलता है कि असामान्य स्थितियों को भी वे सामान्यकृत करने का प्रयास कर रहे हैं।' केदारनाथ सिंह दो विपरीत संवेगों, दृश्य चित्रों और भावानुभूतियों को परिवेशगत तनाव में रचते हैं।' (रोहिताश्व, मिट्टी की रोशनी, सम्पादकः त्रिपाठी, अनिल,शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 61)
केदार जी जीवन मृत्यु के प्रश्नों पर विचार करते समय केवल मनुष्य तक ही सीमित नहीं रह जाते। वे एक कवि के पुनर्जन्म ही नहीं, बल्क़ि वस्तुओं के पुनर्जन्म के बारे में भी सोचते हैं-
'लेकिन प्रिय पाठक
एक कवि का काम चलता नहीं है
अगले जनम के बिना
वह यही तो करता है अधिक से अधिक
कि लोगों में
यहां तक कि चीज़ों में भी
हमेशा बनी रहे
बार-बार जनम लेते रहने की इच्छा।' (प्रिय पाठक, सिंह केदारनाथ, अकाल में सारस, पृष्ठ 108)
मृत्यु के साक्षात की स्वाभाविक कविता है 'सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से गुज़रते हुए'-
' भर लो
ताकती हुई आंखों का
अथाह सन्नाटा
सिवानों पर स्यारों के
फेंकरने की आवाज़ें
बिच्छुओं के
उठे हुए डंकों की
सारी बेचैनी
आत्मा में भर लो।'
x x x x x x x x x x x x x x x
इससे पहले कि भूख का हांका पड़े
और अंधरा तुम्हें चीथ डाले
भर लो
इस पूरे ब्रह्मांड को
एक छोटी सी सांस की डिबिया में भर लो।'
(सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से गु़जरते हुए, अकाल में सारस, पृष्ठ 17)
भूख यहां पर मृत्यु है। मृत्यु को सम्मुख पाकर जीवन के प्रति गहरी आसक्ति और प्रबल हो उठती है।-'अकाल में सारस की उन कविताओं में जिनमें कवि अपनी परिचित और आत्मीय दुनिया में वापस आता हुआ दिखायी पड़ता है वे कविताएं निःसंदेह कवि की सबसे सुन्दर कविताएं हैं और आज के दौर की स्मरणीय कविताएं। x x x x x x x x अकाल में सारस में इसी शीर्षक की कविता को मिलाकर ऐसी अनेक कविताएं हैं जिनमें केदार जी बार-बार मुड़कर अपने काव्य उपकरणों, आधारों और बिम्बों की ओर लौटते हुए दिखायी देते हैं, जो उनकी पहले की कविताओं में भी मौज़ूद है।x x x x x x x x इसका अर्थ यह नहीं है कि केदार जी इन कविताओं में कहीं पीछे की ओर लौटते हैं और वहीं ठहरे हुए रहना चाहते हैं बल्क़ि इसका अर्थ यह है कि वे इन आधारों को मज़बूती से थामे हुए जीवन के नये अर्थों को आविष्कृत करते हैं।' (कुमार, सुरेश, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ134)
इस संग्रह से गुज़रकर पाठक को कवि केदारनाथ सिंह का एक ऐसा चेहरा सामने आता है जो आगे की राह तो पुख्ता करता है किन्तु पीछे छूटे अपने महत्त्वपूर्ण आधारों पर अपनी पकड़ पहले की अपेक्षा मज़बूत करता चलता है वापसी का कवि कहे जाने का ज़ोखिम उठाते हुए भी। कवि का आत्मसंघर्ष अपेक्षाकृत तेज़ हुआ है और उसमें रूप और वस्तु के प्रति आश्वस्ति का बोध कम हुआ है। पिछले संग्रह में उसका जो स्वर मुखर हुआ था अब वह संयत हो चुका है। दूसरे जीवन-मुत्यु के संघर्ष इसका लगभग मूल स्वर बना है जो पहले नहीं था। गांव के जीवन के प्रति उसका लगाव बना हुआ है किन्तु उसका स्वरूप बदला है। इस सम्बंध में उसकी रुमानियत कम हुई है किन्तु लगाव नहीं। अरुण कमल ने ठीक कहा है-'गांव और गांव के सन्दर्भ बिल्कुल नये ढंग से इन कविताओं में आये हैं। गांव पर लिखी कविताएं प्रायः आंचलिक हो जाती हैं, स्वयं भी ग्रामीण लगने लगती हैं। साथ ही साथ एक प्रकार के मोह का भाव भी यहां रहता है। गांव का जीवन प्रायः नॉस्टेल्जिया के साथ कविता में आता है। केदारनाथ सिंह ने इन कविताओं के जरिये गांव को एक नये ढंग से, आधुनिक तरीक़े से देखने की कोशिश की है। संभवतः यह ऐसी पहली महत्त्वपूर्ण कोशिश है। इसीलिए उनके गांव पुराने तरह के पारम्परिक गांव नहीं हैं जिनकी स्तुति हिन्दी कविता ने निरन्तर की है। यहां गांव का जीवन कोई पृथक् निर्दोष जीवन नहीं है-कोई स्वायत्त अंचल नहीं है। यह शेष सम्पर्ण जीवन में ही प्रशस्त है। वास्तव जीवन में एक ही है-एक ही पीड़ा और संघर्ष का विस्तार। 'सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से ग़ुजरते हुए' के उपर्युक्त पाठ से यह स्पष्ट है। इन कविताओं की सबसे बड़ी ख़ूबी है-आंचलिकता से मुक्ति।' (कमल, अरुण, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ 218)
यहां इस सदर्भ में यह और जोड़ना ठीक रहेगा कि गांव हो या शहर प्रकृति के प्रति उनका अनुराग बरकार है और उसका भी विस्तार हुआ है नयी अर्थ सघनता आयी है। प्रकृति के क्रिया कलापों के बाह्य चित्रण के साथ-साथ वे उसके आन्तरिक गुणों से भी जुड़ते नज़र आते हैं। वे फल से उसका स्वाद तक पहुंचे हैं। अब वे मनुष्य के प्रकृति के रिश्ते तो शिद्दत से महसूस करते हैं। 'नये शहर में बरगद' को वे अपने घर चाय पर ले जाना चाहते हैं। बालू का स्पर्श उन्हें रोमांचित करता है। प्रकृति का सहज साहचर्य और उसके आनंद को भी उन्होंने इस संग्रह में पर्याप्त स्थान दिया है-
'अच्छा लगा बालू का स्पर्श
बहुत-बहुत अच्छा लगा
सोचता रहा देर तक
आख़िर छोटे-छोटे कणों की लहक
और छटपटाहट के अलावा
क्या है
क्या है बालू में
जो आदमी को कर दे
इतना विभोर।' (बालू का स्पर्श, सिंह केदारनाथ, पृष्ठ 38-39)
संग्रह में 'चिट्ठी' कविता में अपने गांव चकिया को याद करते हैं तो 'आंकुसपुर' स्टेशन पर ट्रेनों के न रुकने की कसक उन्हें सालती है। 'कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिये' कविता में जीवन के मर्म भी हैं और उनकी कविता की प्रतिबद्धताएं भीं, जो उनकी लोकसम्पृक्ति को प्रकट करती हैं।
'अकाल में सारस' में 'बाजार एक तकलीफ़देह संदर्भबिन्दु के मानिन्द उनके इस कविता संग्रह में बार-बार उभरता है।'(चतुर्वेदी, पंकज, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 139) बाज़ार और आदमी के रिश्ते पर पिछले संग्रहों में भी उनकी कविताएं थीं किन्तु इस रिश्ते पर उन्होंने फिर गंभीर दृष्टि डाली है। एक छोटा सा अनुरोध, दाने, पशुमेला आदि कविताएं बाज़ार पर लिखी गयी हैं। वे बाज़ार को दरकिनार करने के हिमायती रहे हैं। वे कहते हैं-
कैसा रहे
बाज़ार न आये बीच में
और हम एक बार
चुपके से मिल आयें चावल से
मिल आयें नमक से
पुदीने से।(एक छोटा सा अनुरोध, पृष्ठ14)

Sunday 1 November 2009

उत्तर कबीर और अन्य कविताएं: एक विवेचन


1995 में केदारनाथ सिंह का कविता संग्रह 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएं' प्रकाशितहुआ। इस संग्रह में सबसे तेज कोई अनुभूति परिलक्षित होती है तो वह है विस्थापन की, जिसका आरम्भ उनके पिछले संग्रह 'अकाल में सारस' में ही हो गया था किन्तु इसमेंविस्थापन की पीड़ा का दोहरा स्तर देखने को मिलते है। तीन अन्य तत्त्व भी हैं जो इससंग्रह में विशेष ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं उसमें एक है प्रश्नाकूलता, दूसराएक खास तरह की अध्यात्मिकता और तीसरा भाषा, अर्थ व विचार से जुड़े उपकरणों कोकविता के लिए प्रायः द्वितीयक बनाने का कौतुक करते हुए स्वायत्तता प्रदान करना।
केदार जी में 'विस्थापन का भाव शहर में हो रहे विस्थापन की आशंका से आता है, जो जैसा कि था, पहलेप्रतिरक्षा के भाव की ही उपज था। यहां कवि पर शहर का दबाव, बल्कि शिष्ट का दबाव, इतना ज़्यादा है किबार-बार वह गांव की ओर जाता है। पहले यह एक लाचारी रहा है, बाद में यह आत्मविश्वास व आत्म-प्रसरणका कारण भी बना। इस रूप में कवि स्मृतियों की भी रक्षा का उपाय सोचता है। 'अकाल में सारस' और 'उत्तरकबीर और अन्य कविताएं' संकलनों में यह दबाव अधिक दिखता है। (शुक्ल, श्रीप्रकाश, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 125)
पिछले संग्रह में गांव और शहर दोनों के प्रति विस्थापन का भाव नहीं था। पिछले संग्रह में महानगर दिल्ली कामिज़ाज उन्हें परेशान करता था और वे गांव के गहरी आसक्ति की कविताएं लिख पाये थे किन्तु गांव में भी उसीविस्थापन बोध को महसूस नहीं किया था जो दिल्ली में था। इस संग्रह तक आते-आते उन्हें यह आभास हो जाताहै कि गांव में भी वे परदेसी ही हो चुके हैं-
'अपनी सारी गर्द
और थकान के साथ
अब आ तो गया हूं
पर कैसे साबित हो
कि उनकी आंखों में
मैं कोई तौलिया या सूटकेस नहीं
मैं ही हूं
छू लूं किसी को
लिपट जाऊं किसी से
मिलूं
पर किस तरह मिलूं
कि बस मैं ही मिलूं
और दिल्ली न आये बीच में।' (सिंह, केदारनाथ, गांव आने पर, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, राजकमलप्रकाशन, नयी दिल्ली, 1995, पृष्ठ 12 )
दिल्ली में विस्थापन बोध की कविता है 'कुदाल', जिसमें कुदाल के माध्यम से कहा गया है कि किस प्रकार वहांगांव-देहात उपकरण विस्थापित हो जाते हैं। गांव से लगाव रखने वाले व्यक्ति के लिए गांव जुड़ी वस्तुओं व बोधका विस्थापित होना भी उसका अपना विस्थापन ही है-
'अन्त में कुदाल के सामने रुककर
मैंने कुछ देर सोचा कुदाल के बारे में
सोचते हुए लगा उसे कंधे पर रखकर
किसी अदृश्य अदालत में खड़ा हूं
पृथ्वी पर कुदाल के होने की गवाही में
पर सवाल अब भी वहीं था
वहीं जहां उसे रखकर चला गया था माली
मेरे लिए सदी का सबसे अधिक कठिन सवाल
कि क्या हो-अब क्या हो कुदाल का
क्योंकि अंधेरा बढ़ता जा रहा था
और अंधेरे में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था
कुदाल का क़द
और अब उसे दरवाज़े पर छोड़ना
ख़तरनाक़ था
सड़क पर रख देना असंभव
मेरे घर में कुदाल के लिए ज़गह नहीं थी।' (सिंह, केदारनाथ, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, कुदाल, पृष्ठ
गांव के विकास और बदलाव को भी वे सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पाते। वे गांव के उस पुराने आत्मीय दृश्यको खोजते हैं जो नहीं मिलता और उन्हें आहत करता है, उनमें टीस और कसक पैदा करता है-
'कुत्ते भूंकते हैं
जैसे कुत्ते भूंकते हैं
पर स्थान
और समय के बीच
जहां भी फांक थी
उसे सीमेंट से अच्छी तरह
भर दिया गया है
और अब यह सब
एक लय में है
यहां तक कि एक लय है
महामारी के जाने
और दूरदर्शन के आने में भी
आना नहीं पड़ता
अब डाकिये को शहर से
थैला लटकाए हुए
यहीं कहीं रहता है
दस
या बीस घर बाद
पर दिखता नहीं है अब
मां को वह कहीं भी
वह तो उसे जानती थी
उसके बड़े थैले के
हिलने के छंद से
बाहर से
नहीं मिलता उत्तर
तो कभी-कभी ख़ुद से ही
पूछती है वह-
यह कैसे हुआ
कि डाकघर आया
और खो गया डाकिया?'
(सिंह, केदारनाथ, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, विकास कथा, पृष्ठ 42/43)
दिल्ली के सभ्य जगत के परिवेश के तौर-तरीके उनके लिए आहतकारी हैं-
'कौन हैं ये लोग
जो कई बार बग़ल से गुज़रते हुए
मेरे इतने पास होते हैं-इतने अधिक पास
कि इनकी सांसों का स्पर्श
उड़ा देता है मेरी चिन्दियां
इनकी आंखों की चुप्पी
उधेड़ लेती है मेरी खाल
कौन हैं ये लोग
जिनसे दूर-दूर तक
मेरा कोई रिश्ता नहीं
पर जिनके बिना
पृथ्वी पर हो जाऊंगा
सबसे दरिद्र।'(सिंह, केदारनाथ, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, जो रोज़ दिखते हैं सड़क पर, पृष्ठ 94)
अपनी रचनाओं में दिल्ली और गांव के अंतरसम्बंध को उजागर करते हुए स्वयं केदार जी कहते हैं- 'दिल्लीआकर शायद दिल्ली के कंट्रास्ट के चलते मैंने अपने गांव को अपने भीतर ज़्यादा खोजने और पाने की कोशिशकी। मेरी गांव से जुड़ी ज़्यादातर कविताएं इसी दौर में लिखी गयीं। एक विचित्र बात यह है कि पिछले दिनों गांवजाकर भी मैंने उसी विस्थापन का अनुभव किया जो दिल्ली में करता हूं। मेरे जैसे बहुत से लोगों की विडम्बना यहहै कि अपना मूल निवास तो छूट गया, पर जहां रहते रहे उसके साथ घर जैसी आत्मीयता कभी नहीं बनी। इससारी स्थिति का मेरी कविता पर ख़ास प्रभाव है, जिसे स्पष्ट ही लक्ष्य किया जा सकता है।' (मेरेसाक्षात्कार: केदारनाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2003, पृष्ठ 136)
केदारनाथ सिंह की इधर की कविताओं में प्रश्नाकूलता बढ़ी है। प्रश्न उनके काव्य स्वभाव का हिस्सा रहा हैकिन्तु इस संग्रह में प्रश्न व्यापक स्थान घेरता है। यह प्रश्न ही है जो यह बताया है कि वे गहरे संशय में औरसंशय की स्थिति उन्हें विविध दिशाओं में ले जाती है। प्रश्न स्वयं अपने से भी हैं और जग से भी। आत्म औरपर का अलगाव यूं भी उनके यहां बहुत सम्भव नहीं है। कहना न होगा कि सार्थक प्रश्न स्वयं अपने में उत्तरभी होते हैं और यहां भी हुआ है। कई कविताओं का समापन ही प्रश्न से हुआ है। 'गांव आने पर' कविता में वे पूछतेहैं-
'क्या है कोई उपाय
कि आदमी सही-साबूत निकल जाये गली से
और बिल्ली न आये बीच में?'(पृष्ठ 12)
'कुदाल' में वे कहते हैं-
'मेरे लिए मेरी सदी का सबसे कठिन सवाल
कि क्या हो-अब क्यो हो कुदाल का? '(पृष्ठ 18)
'नमक' कविता में सवाल है-
'न सही दाल
कुछ-न-कुछ फीका ज़रूर है
सब सोच रहे थे
लेकिन वह क्या है?' (पृष्ठ 20/21)
'पंचनामा' कविता में वे पूछते हैं-
'अब दोष किसे दूं
पुलिस को
कि लाश को?' (पृष्ठ 23)
'घर का विचार' कविता में पूछते हैं-
'अब इस पर बहस से
कोई फ़ायदा नहीं
कि उसने जो हवा से कहा-थू..
उसके दायरे में
सिर्फ़ कुंडी आती थी
या पूरा घर? '(पृष्ठ 26)
'विकास-कथा' में उनका सवाल है-
'यह कैसे हुआ
कि डाकघर आया
और खो गया डाकिया? '(पृष्ठ 43)
'हस्ताक्षर' कविता में भी सवाल खड़ा है-
'पर अब सवाल यह था
कि तय कैसे हो
और हो तो किस अदालत में
कि कौन-सा हस्ताक्षर जाली है
मेरा या हवा का?' (पृष्ठ 48)
'आंकड़ों के धुंधलके में' कविता में लोग इस प्रश्न से जूझ रहे हैं-
'पर कहां गया पैसा?
कौन-से जोड़ से घट गया था वह?
छिप गया था जाकर
किस गुणा-भाग के अंधेरे कोने में?' (पृष्ठ 51)
'जिसे भेजा गया दूसरे शहर में' कविता की पंक्तियां देखें-
'ठीक अपनी नाक की सीध में
भागा जा रहा था वह
यह सोचता हुआ
कि उस शहर की बत्तियां (किस शहर की?)
अगर अब भी नहीं दिखीं
तो उस अन्तहीन सड़का पर
उसे मुड़ना कहां होगा?' (पृष्ठ 57)
'खरोंच' कविता में वे कहते हैं-
'मैं इस खरोंच को लेकर
पंढरपुर जाना चाहता हूं
लेकिन पंढरपुर क्यों? '(पृष्ठ 61)
दरअसल अपनी प्रश्नाकूलता का जवाब वे अपने प्रश्नों वाली ही एक कविता में यूं देते हैं-
'जो सड़ रहा है
और ज़ाहिर है कि बहुत-कुछ है
जो कि सड़ रहा है
क्या मैं उसे बचा सकता हूं
कविता लिखकर?
फिर क्यों यह तम्बू
क्यों यह तामझाम
क्यों यह अश्लीलता हार की
और पुरस्कार की
क्यों नहीं भट्ठी गरमाना
क्यों नहीं साइकिल में हवा भरना
क्यों नहीं पत्तल में
सींके लगाना
क्यों नहीं
आख़िर क्यों नहीं सोचना
कि सोचने से पहले और सोचने के बाद
जो बच जाता है ढेर सारा
उसे रखा कहां जाय?'
वे कविता, सभ्यता, जीवन के तामझाम और मनुष्य की नियति से जुड़े सवालों को उठाते हैं औचित्य पूछते हैं।सोचने के पहले और सोचने के बाद के बचे के प्रश्न ही उन्हें अर्थवान बनाते हैं। वही चिन्तनशीलता की आग कोबचाये रखता है और यही वह मार्ग है जो उन्हें अध्यात्म की ओर ले जाता दीखता है। क्या यह अनायास है कि वेकबीर पर लम्बी कविता लिखते हैं और संत तुकाराम के गांव पंढरपुर जाने के बारे में पूछते हैं। कवि के तौर पर वेप्रश्न पूछने के औचित्य का उत्तर देते हैं-
'पूछो कि पूछने से भाषाएं
ज़िन्दा रहती हैं।' (पृष्ठ 85)
भाषा के सम्बंध में भी इस संग्रह में बेहद संशय में हैं और इस बात की लगातार शिनाख्त करते दिखायी देते हैं किभाषा कहां है, कैसे बचेगी और कहां विफल है, कहां विकसित किये जाने की आवश्यकता है और इस क्रम में उन्हेंइस बात का आभास भी होता है कि भाषा को अभी विकसित होना बचा है-
'जितनी वह चुप थी
बस उतनी ही भाषा
बची थी मेरे पास।' (उसकी चुप्पी ,पृष्ठ 89)
'पांचवीं चिट्ठी' कविता में वे कहते हैं-
'और यह भी हो सकता है
कि उस शहर में भाषा ही हो गयी हो गुल
बिजली की तरह
आख़िर भाषा भी तो शहर में
एक बिजली ही है।' (पृष्ठ 93)
'सास्युअर के शब्दों में कह सकता हूं कि केदार मुख्यतः Parole (वाक्) के कवि हैं, Longue (भाषा) के नहीं। भाषाऔर वाक् के बीच जो जटिल तनाव और डिफरेंस है वहीं कहीं केदार जी हैं। वह सही मायनों में भाषा और वाक् कीसारी ताक़त को हस्तामलक कर उसे कौतुक की सीमा तक ले जाते हैं और पूरा लुत्फ लेते हैं। जैसे कोई सिद्धसंगीतकार अपनी उंगलियों से अपने वाद्ययंत्र पर स्वरों एवं सुरों का खेल खेलता हो।' ( त्रिपाठी, अनिल, मिट्टीकी रोशनी, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 201)
वे अपनी भाषा ही नहीं बल्क़ि समूची मनुष्यता की भाषा के लिए बहुत कुछ करने को बेचैन दिखायी देते हैं-
'मुझे मिलना ही होगा
उस दढ़ियल कवि से
जानना ही होगा उसकी भाषा का दुख
उसकी लय के झटके
उसकी चुप्पी की चीर-फाड़
उसका वह लहूलुहान युद्ध
जो सबकी ओर से उसे हर रात लड़ना पड़ता है
अपनी भाषा की सबसे खूंखार तुकों से
मुझे जाना ही होगा ज़िल्दाना
अगर ज़िल्दाना कहीं हो
अगर वह न ह
तो फिर अपने लिए
और अपनी समूची भाषा के लिए
मुझे पैदा ही करना होगा ज़िल्दाना
चाहे जैसे भी हो।' (ज़िल्दाना कहां है, पृष्ठ 115)
यहां ज़िल्दाना के बहाने कवि प्रकारांतर से उनकी भाषा की बात कर रहा है जो मानवेतर हैं या फिर मानव भी हैंतो उनके अव्यक्त पहलुओं व्यथाओं व उल्लास को व्यक्त करने की ज़रूरत महसूस करता है उसे गुरुतर मानताहै। वह मानता है कि भाषा के क्षेत्र में अभी बहुत काम बाकी है। और यही कारण है कि केदारजी इस संग्रह मेंकई स्थानों पर भाषा से लगभग खेलते हुए कविता में कौतुक रचते हैं। वे महसूस करते हैं कि-
'और फिर भी कितना राग है
और कैसी एक लय
दुनिया के सारे अनाप-शनाप
और अगड़म-बगड़म में (उत्तर कबीर, पृष्ठ140)'
इतना ही नहीं वे जानते हैं कि चुप्पी में भी एक भाषा है
'पर यदि दो लोग चुप हों
पास-पास बैठे हुए
तो उतनी देर
भाषा के गर्भ में
चुपचाप बनती रहती है
एक और भाषा।' (कुछ और टुकड़े, पृष्ठ 98)
केदार जी ने जिस ताजा निरक्षरता को बचाने की हिमायत की है वहीं वे खड़े हैं जहां वे वस्तुओं के बारे में बनीगलत अवधारणाओं को ध्वस्त करते चलते हैं या फिर उन्हें नयी अर्थवत्ता प्रदान करने के लिए नये शब्द औरनये मुहावरे गढ़ रहे होते हैं।
कविता में कौतुक रचने की दिशा में भी उनकी कविताएं हैं तस्वीर, दाढ़ी बनाते हुए, आज का बाज़ार भाव, जड़ें, खर्राटे, शिलान्यास, घर का विचार, कुरुक्षेत्र में चाय, न्यूयार्क में क़ब्रिस्तान देखकर, आंकड़ों के धुंधलके में, जिसे भेजा गया उस दूसरे शहर में, खरोंच, मधुमक्खियों का हमला में इसके प्रयास देखे जा सकते हैं। इनकविताओं में भाषा के एक नये बर्ताव या कविता के किसी तार्किक परिणति तक पहुंचने की परवाह नहीं करतेबल्कि वे वस्तु या विषय की अपनी संरचना और स्वभाव पर छोड़ देते हैं। 'प्रकृति के साथ आदिम रिश्ते औरजटिलताओं के बीच भी टटकेपन के अहसास को काव्यात्मक अभिव्यक्त देने का प्रयास किया है। यही कारण हैकि नामवर सिंह को केदारनाथ सिंह के इस संग्रह की कविताओं में धारोष्ण अनुभव की अनुभूति होती है।' (सहाय, निरंजन, केदारनाथ सिंह और उनका समय, शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 151) ये कविताएं कविता के परम्परागत तरीकों के किसी हद तक स्वायत्त हैं। मनुष्येतर संसारको संवेदनशील नज़रिये से देखा गया है और उनके कार्यव्यापार पूरी गरिमा के साथ उपस्थित हैं जैसे 'खुलेपन मेंपहिया'। शायद इन्हीं कविताओं के लिए 'शब्द पर दस्तक' जैसी कविता है जिसमें एक चिड़िया चीं..ची.. चांय..चांयकरती शब्दकोश के पन्नों पर दस्तक दे रही है और वे शब्द जो शब्दकोश के अन्दर चिल्ला रहे हैं ज़गह नहीं हैज़गह नहीं है। और केदार जी कहते हैं-
'देखें-हां देखें
जो देख सकते हों
सुबह-सुबह
एक निरर्थक आवाज़ ने
अर्थ की दुनिया में
कैसा हड़कम्प मचा रखा है।' (शब्द पर दस्तक, पृष्ठ 80)
केदार जी की कविता में एक भव्य क़ब्रिस्तान देखकर जीवितों के मुंह में पानी आ जाता है, तो दाढ़ी बनाते वक़्तशीशे में देखते हुए वे अपने ही हाथ के समाने बिलकुल निहत्था महसूस करते हैं। 'आज का बाजार भाव' कविताअख़बार में व्यापार की खबरों की भाषा में है जिसमें वे जोड़ते हैं-
'गाहक भौंचकक्का
शासन अवाक्
सिर्फ़ एक कौआ
भोलता है हवा में
क्राक
क्राक
क्राक।' ( आज का बाज़ार भाव,पृष्ठ 105)
हालांकि इन कविताओं को उत्तर-आधुनिकता से जोड़ना ग़लत होगा। केदार जी का कहना है कि ' उत्तर-आधुनिकता की अवधारणा पश्चिम से आयी है और वहां इस पद से जो अर्थ लिया जाता है, उस अर्थ मेंमैं अपने को उत्तर-आधुनिक नहीं कहूंगा। हां, इस अर्थ में उत्तर-आधुनिक कोई कहना चाहे तो कह सकता हैकि मेरी कविता आधनुकता के उत्तर चरण में लिखी जाने वाली कविता है।' (सिंह, केदानाथ, केदारनाथ सिंहः मेरेसाक्षात्कार, पृष्ठ 132) उत्तर-आधुनिकता पर कटाक्ष करती हुई एक कविता भी उन्होंने इस संग्रह में लिखीहै-
'बल्कि वे भी
जो किन्हीं लुप्त चरागाहों में
कहीं बची हुई घास के
किसी अन्तिम छोर पर
बकरियां चराते हैं
और चराते-चराते इतना समय हुआ
कि भूल गये हैं
अपने सारे गाने
वे भी
वे भी
वे भी आधुनिक हैं
या उत्तर आधुनिक
या आधुनिक के उत्तर
या पता नहीं क्या?
मेरे कान इन शब्दों से
पक गये हैं।' (विमर्श, पृष्ठ 44) केदार जी में जो नव्यता के आयाम हैं वे समय के ज्वलंत प्रश्नों की टकराहटका परिणाम हैं ना कि हर आने जाने वाले साहित्यिक आंदोलनों की उपज, इसका ताज़ा उदाहरण यह कविता भीहै। यह कविता उस दौर में लिखी जा रही है जब उत्तर-आधुनिकता को शोर हिन्दी साहित्य में भी मचा है।
इस संग्रह तक आकर केदार जी 'पाणिनी से झगड़ते हैं। पाणिनी से मतलब व्याकरण से जहां अर्थ की सारीसंभावनाएं निचुड़ जाती हैं। वैसे भी व्याकरण भाषा का वह उपनिवेश है जहां की सिर्फ़ पक्का माल ही बिकता है।कच्चा माल नहीं। जबकि यह कच्चापन ही कुम्हार की कच्ची मिट्टी की तरह सबसे काम की चीज़ है, फिर तोउस पर निर्भर है वह इसे किस रूप में ढालता है।' ( त्रिपाठी, अनिल, मिट्टी की रोशनी, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 201)
कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जिनमें उनकी करुणा अध्यात्म के स्तर तक पहुंची है जिनमें एक है बची हुई करुणा, लोरी, नदियां। यह उनकी अध्यात्मिक ऊंचाई ही है कि वे लिखते हैं-
दरख़्तों की छाल
और हमारी त्वचा का गोत्र
एक ही है
परछाइयां भी असल में
नदियां ही हैं
हमीं से फूटकर
हमारी बगल में चुपचाप बहती हुई नदियां। ( नदियां, पृष्ठ 13)
उनकी करुणा की बानगी देखें-
'रात भर बहती रही यमुना
चमकते रहे तारे-रात भर
और रोता रहा वह
जो कई बार एक कुत्ता था
कई बार एक आदमी
और मेरे अन्दर बजती रही
सरपत के सूखे पत्तों की तरह
मेरी बची हुई करुणा
झन्.. झन्..झन्न.. झन्न।' (बची हुई करुणा, पृष्ठ 87)
शहर में उन्हें ठंड पर कविता लिखते समय सबसे पहले गौरैया याद आती है। उन्हें लगता है वह गौरैया ही है जो ठंडको खूब-खूब पहचानती है और दोनों के बीच बहुत कुछ साझा है। यही साझेदारी वे अपने ठंड और गौरैया के बीचस्थापित करते चलते हैं क्योंकि उनके लिए जो साझा है वही बेहद मूल्यवान है और वह दांव पर लगा हुआ है।व्यापक साझेदारी यह काव्य स्वभाव उन्होंने उत्तरोत्तर विकसित किया है, ठंड और गौरैया कविता की बानगीदेखें-
'मौसम की पहली सिहरन
और देखता हूं
अस्तव्यस्त हो गया है सारा शहर
और सिर्फ़ वह गौरैया है जो मेरी भाषा की स्मृति में
वहां ठीक उसी तरह बैठी है
और ख़ूब चहचहा रही है
वह चहचहा रही है
क्योंकि वह ठंड को जानती है
जैसे जानती है वह
अपनी गर्दन के भूरे-भूरे रोओं को
वह जानती है कि वह जिस तरफ़ जायेगी
उसी तरफ़ उड़कर चली जायेगी ठंड भी
क्योंकि ठंड और गौरैया दोनों का
बहुत-कुछ है
बहुत-कुछ साझा और बेहद मूल्यवान
जो इस समय लगा है
दांव पर..।' (सिंह केदारनाथ, ठंड और गौरैया, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, पृष्ठ 125/126)
'इस संग्रह की कविताओं में कवि विडम्बनाओं और विरूपताओं के बीच सच की तलाश की चेष्टा करता है। इसचेष्टा में संशय और संदेह भी आता है जो ज्ञान-मीमांसा की एक आवश्यक कड़ी होती है। केदार जी अपने बिम्बोंको दैनिक जीवन से चुनते हैं, इससे कविता की सम्वादधर्मिता में बढ़ोत्तरी होती है। 'उत्तर कबीर और अन्यकविताएं संग्रह' में प्रयुक्त यह शैली भक्त कवियों की याद दिलाती है।' (सहाय, निरंजन, केदारनाथ सिंह औरउनका समय, शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 210) केदार जी ने उस वस्तुजगत को पूरी गरिमा दी है जिनके बारे लोग पूरी संवेदनशीलता के साथ नहीं सोचते। उनके संकट को मनुष्य केसंकट से जोड़कर उसके साथ अपने साझेपन को नहीं बांटते। इस क्रम में एक कविता कुएं भी है जिनके धीरे-धीरेबेकार होते जाने पर कवि चिन्तित है। 'कुओं के लोप का अर्थ सिर्फ जल के एक स्रोत का दूसरे स्रोत के आजाने पर अप्रासंगिक होना नहीं है, बल्कि उसके साथ जुड़े सामाजिक सम्बंधों की पूरी संरचना का निरर्थक होजाना है।' (अपूर्वानन्द, मिट्टी की रोशनी, पृष्ठ 117)
इस संग्रह में एक कविता है 'दवा की तलाश में एक बेचैन आत्मा' वह कैंसर से पीड़ित अपनी पत्नी पर उन्होंनेलिखी है।
लोक चरित्रों के माध्यम से लोक संन्दर्भों को उपस्थित करने की प्रवृत्ति बाद के कविता संकलनों में कमहोती गयी है। 'अकाल में सारस' और 'उत्तर कबीर' में नहीं ही है। किन्तु 'उत्तर कबीर' में स्वयं इतिहासप्रसिद्ध नायक है; एक ओर कबीर तो दूसरी ओर भिखारी ठाकुर। दोनों का स्रोत लोक जीवन। प्रत्यक्षआंखिन देखी कवि को बड़ी बातें कहनी होती हैं, जिस कारण से वह दो प्रसिद्ध चरित्रों को चुनता है क्योंकि गढ़ाहुआ चरित्र उसके भावों को गहराई विस्तार में व्यक्त करने के लिए शायद नाकाफ़ी लगा हो। इसमें कवि सफलभी हुआ है। 'उत्तर कबीर' में तो कवि एक लोक नायक को चित्र (स्थूल) के रूप में देखकर परेशान है। वह उस हरप्रक्रिया के विरुद्ध जो एक गतिशील वस्तु को स्थूल बनाती है। इमसें कवि अब तक अर्जित अपने समस्तकाव्यगत शिल्प को प्रयोग भी करता है।'(शुक्ल, श्रीप्रकाश, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007 पृष्ठ131) केदार जी यहां कवि कबीर के नाम की कताई मिल में बुने जाने के विरुद्ध हैंक्योंकि वेच चाहते हैं नाम की गरिमा बनी रहे। नाम से एक पूरी संस्कृति जुड़ी होती है। कबीर सूत मिल नामसुनकर ही वे चक्कर में पड़ जाते हैं। वे स्वयं भी विचार करते हैं और लोगों के सामने प्रश्न भी रखते हैं-
'कुत्ते को लोग
क्यों कहते हैं कुत्ता?
चांद भला चांद क्यों है?
सुबह क्यों सुबह है
शाम क्यों शाम?
अगर बोलना है
तो एक दिन उतारने होंगे
सारे-के-सारे छिलके
और अन्दर झांककर देखना ही होगा
कि आख़िर रिश्ता क्या है
नमक ध्वनि
और नमक के स्वाद में?' (पृष्ठ 139)
इस प्रकार इस कविता में केदार जी चाहते हैं कि लोग इस बात का चिन्तन करें कि कबीर क्या थे, उनके मूल्यक्या थे और उनके नाम पर सूत मिल करने का क्या औचित्य है। क्या कबीरदास महज़ एक जुलाहे थे। क्यावस्तुतः वे सूत ही कातते थे। क्या सूत मिल से उनके नाम को जोड़ देने से उनका सांस्कृतिक अवमूल्यन नहीं होरहा है। क्या यह कबीर के होने के अर्थ और परिव्याप्ति को सीमित नहीं कर रहा है। इन सब पर विचार करतेहुए वे कहते हैं-
'सोचता हूं कि कितना अजीब है
लम्बे समय बाद अपने शहर के होठों पर
घिस-घिस कर एक नाम बन जाना
अपनी भाषा के छिद्रों से छनते-छनते
लोगों की स्मृति में
एक कथा बन जाना
एक रूपक बन जाना
कितना भयावह है
और एक दिन उस सबका
चुपके से बदल जाना कबीर सूत मिल में
कितना शानदार है
और कितना दयनीय।' (वही, पृष्ठ 140) और सारी बातों के बीच और कितना दयनीय कहना ही कवि का मूलमंतव्य है।
कवि समय की विडम्बनाओं की चर्चा करते हुए कहता है यह वह समय है जब-
पानी भूल गया है
आग से अपना रिश्ता
आग को याद नहीं
हवा का स्पर्श
हवा बहती है
गंध से कटी-कटी
गंध से टूट गयी है
पृथ्वी की लय
पृथ्वी से बंद है
आकाश की बातचीत
और फिर वे कबीर सूत मिल नाम पर कटाक्ष करते हैं और इस बड़ी विडम्बना का उल्लेख कि-
'ऐसे में एक विराट महाकाव्य
लोगों के ललाट
और वक्षस्थल से झरता है
और आराम से अंट जाता है
एक छोटे से चुटकुले में।' (उत्तर कबीर, पृष्ठ 137)
यह कविता कबीर के बहाने मौज़ूदा समय में संस्कृति व मूल्यों के स्थिति पर एक तल्ख़ टिप्पणी बन कर सामनेआती है। केदार जी समय के संकट को पकड़ने में पूरी तरह से कामयाब रहे हैं और प्रभावी भी-
'एक सुई खो गयी है
पृथ्वी के दिल में
और दर्ज़ी सुई की नोक में
खो गया है
एक मिट्टी के ढेले में
गुम गया है कुम्हार
और बढ़ई लोप हो गया है
चिरती हुई लकड़ी की गंध में
पथेरा अपने सांचे में
ग़ायब हो गया है
साधक चले गये हैं
शवों की तलाश में
कवि अपने शब्दों की फांक में
लापता है
और स्वाद लौट गया है
फिर से गुठली में।'
यह केदार जी की यह लम्बी कविता है। उन्होंने लम्बी कविताएं बेहद कम लिखी हैं। 'उत्तर कबीर' के अलावाबाघ' ही ऐसी कविता है। हालांकि वह इसके काफ़ी लम्बी है और स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। इसमेंवे कबीर के बहाने अपनी सांस्कृतिक धरोहरों, संस्कृति पुरुषों के समाज से जीवित अन्तरसम्बंधों की पड़तालकरते हैं। प्रश्न पूछते हैं और आहत भी होते हैं-
'देखता हूं कि आमी
और दुनिया के बीच
पानी और बानी के जितने रास्ते थे
सब बंद हैं
अब किससे पूछूं
कि पूछना क्या अब ख़ुद कोई रास्ता नहीं है?' (उत्तर कबीर, पृष्ठ 134)
केदार जी दरअसल गतिशील को स्थूल बनाने के पक्षधर नहीं बल्कि स्थूल को गतिशील बनाने के हिमायती रहेहैं। उनकी बहुचर्चित कविता 'मांझी का पुल' अपनी स्थूलता के कारण नहीं बल्कि गतिशीलता के कारणमहत्त्वपूर्ण मानी गयी वहां मांझी का पुल एक ठोस भौतिक पुल नहीं रह जाता बल्कि वह लोगों के मानस मेंटंगा एक पुल बन जाता है। उनके अनुसार 'हर पुल में छिपी रहती है एक नाव।' (सिंह, केदारनाथ, ज़मीन पक रहीहै, मांझी का पुल, पृष्ठ 93)
यहां भी जिस तट पर मगहर बसा है वह आमी नदी और कबीर उनके लिए पानी और बानी का रास्ता हैं और कबीरसूत मिल जैसे उपक्रमों से कबीर के स्थूल हो जाने से ये रास्ते बंद हो जाते हैं। वे तो कबीर के उस सूत को पकड़नाचाहते हैं 'जो कहीं से भी खींचो/कहीं से भी तानो/कम पड़ जाता है' (वही, पृष्ठ 135), क्योंकि दुनिया को कबीर केउस सूत की आवश्यकता है जो सांस्कृतिक सद्भाव के लिए ज़रूरी है। न सिर्फ़ कबीर के नाम पर स्थापितलगभग बंद पड़ी इस कताई मिल के कई ख़िलाफ़ है बल्कि वह इसी क्रम में मगहर को कबीर की अमरता केख़िलाफ़ मानने लगता है क्योंकि मगरह स्थूल है-
'अमरता के ख़िलाफ़
एक लम्बी चीख़ की तरह
फैला है मगरह।' (वही, पृष्ठ 134)
केदारनाथ सिंह का भोजपुरी भाषा व संस्कृति से गहरा लगाव रहा है। वे अपने पैतृक गांव में जाते हैं तो भोजपुरी हीबोलते हैं। भोजपुरी भाषा से जुड़े समारोहों में वे चाव से जाते हैं। भोजपुरी नाट्य निर्देशक, अभिनेता व बिदेशियागीत नाटिका (नाच) के रचयिता भिखारी ठाकुर पर भी इस संग्रह में उन्होंने कविता लिखी है जिन्होंने कला केमाध्यम से जनजागरण में भाग लिया था, जो आज़ादी की लड़ाई का ही एक हिस्सा था। आज़ादी की लड़ाई में उनकेजैसे लोक कलाकारों के योगदान के उल्लेख को भी वे आवश्यक मानते हैं , जो इसमें प्रकट हुआ है। 'कला औरजनजागरण के सघन रिश्ते को प्रकट करने के लिए छुरा से छुटने और नृत्य से जुड़ने के प्रसंग को भिखारीठाकुर के कथा-बिम्ब के माध्यम से भिखारी ठाकुर कविता में प्रस्तुत किया गया है।' (सहाय, निरंजन, केदारनाथ सिंह और उनका समय, शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 211) यहतब का प्रसंग है जब एक समारोह में स्वयं केदार जी ने भिखारी ठाकुर को बोलते हुए सुना था। भिखारी ठाकुर नेउस समारोह में बताया था कि पेशे से हजाम थे और कैसे कला में अभिरुचि के कारण उनके हाथ से उस्तूरा छूटगया और नृत्य, गीत, अभिनय को उन्होंने अपना लिया।


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