Wednesday 25 November 2009

अकाल में सारसः एक व्याख्या


केदारनाथ सिंह की 61 कविताओं का संग्रह 'अकाल में सारस' 1988 में आया जिसमें सन् 1983 से 1987 तक की कविताएं संकलित हैं। इस संग्रह में उनकी कविताओं की उत्कष्टता पहले से बढ़ी है और कथ्य तथा रूप दोनों ही स्तरों पर इसमें उल्लेखनीय परिवर्तन घटित हुए हैं। पहले से परिवक्व पहले से अधिक प्रभावी। अर्थ परिवर्तन की जो प्रक्रिया उनमें शुरू हुई थी लगता है कि यही वह गंतव्य है जहां वे पहुंचना चाहते थे। उनका व्यक्तिगत जीवन, विश्व साहित्य का सतत अध्ययन और समूचा विश्व होना चाहने की चाहत यहां एक ऐसी काव्य दृष्टि का विकास करने में सक्षम हुई है जो हिन्दी व भारतीय कविता में किसी हद तक विरल है। इस संग्रह में मनुष्य की अक्षय उर्जा व अदम्य जिजीविषा है और परम्परा से मिली दिशाएं हैं जिनका संधान उन्होंने आवश्यकतानुसार अपनी पिछली ज़िन्दगी की ओर मुड़कर भी किया है। वे अपने काव्य सृजन में आगे तो बढ़ते रहे हैं किन्तु पीछे का नष्ट नहीं करते बल्कि उसकी भी कोई न कोई लीक बची रहती है जहां आवश्यकतानुसार वे लौटते हैं। कवि केदार कविता के नये अनजान सफर पर बार-बार जाते हैं तो वहां पीछे छूटा हुआ बहुत कुछ भी काम का लगता है और वे पीछे छूटे हुए को भी आगे की यात्रा का पाथेय बना लेते हैं। 'केदारनाथ सिंह ने फिर कुछ पुरानी लयों पर पुनर्जीवित किया है। एक कविता निराला को याद करते हुए उन्हीं की ज़मीन पर लिखी गयी है।' ( कमल, अरुण, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ 223) भौतिक रूप से वे महानगर में हैं तो मानसिक रूप में लोक की ओर पहले से अधिक आकृष्ट हुए हैं। उन्हें इस बात का लगातार एहसास होता रहा है कि लोक -जीवन ही उनकी काव्य-भूमि और मनोभूमि है जिसे लेकर उन्हें दिगंत पार जाना है। जड़ों की ओर लौटना ही उनमें ऊर्जा का संचार करता है और ताज़गी भरता है। वे अपने साथ कुछ सूत्र लेकर बढ़े हैं और समय आने पर उन्हें गुनते हैं जो उन्हें असंजस से उबारता है और दिग्भ्रमित नहीं होने देता। आधुनिकता के देशज स्वरूप का विकास वे शुरू से धीरे-धीरे कर रहे थे और वह नयी ऊंचाइयों तक जाता है। पहली की कविता में वे इस संग्रह की उस बात को कहते हैं जो इसकी केन्द्रीय धुरी है। इसके पहले भी उनके कतिपय काव्य संग्रहों में पहली कविता ने पुस्तक की भूमिका का कार्य किया है। इसमें वे कहते हैं-
'जैसे चीटियां लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई अड्डे की ओर
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा।' (सिंह, केदारनाथ, अकाल में सारस, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1988, मातृभाषा, पृष्ठ 11)
यह जो मेरी भाषा का जिक़्र है वह केदार की वह लोक भूमि है जहां उनकी रचनात्मकता का अजस्र स्रोता है। जितना ही वे अपनी जड़ो की ओर लौटते हैं बाह्य संसाकर का भी उसी अनुपात में विस्तार होता जाता है।
यहीं केदार जी की उस बीस वर्ष की चुप्पी का राज भी खुलता है जो 'अभी बिल्कुल अभी' से 'ज़मीन पक रही है' के बीच है। रचनाशीलता उनके लिए अपनी भाषा के पास लौटना है और व्यवस्था के ख़िलाफ चुप्पी उनके प्रतिकार का अन्दाज़। साठोत्तरी दौर में जब कवियों के कई-कई संग्रह निकल रहे थे और शिल्प व कथ्य को लेकर नित नये आंदोलन छिड़े थे उन्होंने चुप्पी की शरण ली थी। केदार जी के यहां अस्वाभाविक परिस्थितियों में रचनाशीलता सम्भव नहीं है। वे तब लिखते हैं 'जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है जीभ, दुखने लगती है आत्मा।' (वही)
केदार जी के प्रकृति का भयावह रूप और विभीषिका प्रायः नहीं है। किन्तु इस संग्रह में अकाल पर उनकी दो कविताएं हैं शीर्षक कविता 'अकाल में सारस' और 'अकाल में दूब'। अकाल पर केदार जी के अग्रज कवि नागार्जुन ने 'अकाल और उसके बाद' तथा समकालीन कवि रघुवीर सहाय ने 'अकाल' कविता लिखी है। अकाल से जन जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को ही इन कवियों ने चित्रित किया है। विषय वस्तु एक होते हुए भी अकाल पर इन तीनों कवियों का भावबोध अलग है और तीनों का अपना-अपना विशिष्ट अन्दाज़ है और वस्तुजगत पर प्रतिक्रिया की अपनी शैली, अपनी भाषा। नागार्जुन अकाल के बाद के सामान्य जीवन से अकाल की स्थितियों की भयावहता को उभारते हैं तो रघुवीर सहाय अकाल के जिम्मेदार कारकों के प्रति गंभीर हैं।
केदार जी की अकाल पर लिखी दोनों कविताओं में उनकी नाटकीय शैली विद्यमान है। 'अकाल में दूब' में पूरा दृश्य एक समारोह जैसा। चित्र और स्थितियां बोलती हैं मंत्रणा करती हैं और अकाल में यदि दूब बची है तो जीवन की आशा भी बची है के निष्कर्ष तक कविता पाठक को पहुंचाती है। यह जीवन की वह कुंजी है जिस तक केदार जी की कई कविताएं पहुंचतीं है पहुंचाने की कोशिश करती हैं। 'अकाल में सारस' कविता में सुदूर प्रदेशों से सारस पानी की तलाश में आते हैं। एक बुढ़िया अपने आंगन में एक जलभरा कटोरा रखती है। सारस उस कटोरे को देखते तक नहीं और उड़ जाते हैं। एक पूरा दृश्य। एक फ़िल्म की पटकथा सी गतिविधियों की बारीक से बारीक घटना दर्ज़ है। 'केदार वर्णन नहीं चित्रण करते हैं। प्रायः उनकी संवेदना देखे हुए को किसी शॉट की तरह कम्पोज़ करने के करीब पहुंचने लगती है। (प्रसाद, गोविन्द, मिट्टी की रोशनी, सम्पादकः त्रिपाठी, अनिल,शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 105)
दरअसल यह कविता भौतिक अर्थ में अकाल पर होते हुए भी अर्थ के अतिक्रमण की कविता है और वह शहर को दया या घृणा का पात्र मानने की टिप्पणी के साथ ख़त्म होती है। शहर में जीवन तत्त्व पानी की उपलब्धता के बारे में सारसों के अनुमान को वे यूं बयां करते हैं-
'पानी को खोजते
दूर-देसावर तक जाना था उन्हें
सो, उन्होंने गर्दन उठाई
एकबार पीछे की ओर देखा
न जाने क्या था उस निगाह में
दया कि घृणा
पर एक बार जाते-जाते
उन्होंने शहर की ओर मुड़कर
देखा ज़रूर।'
(अकाल में सारस/ पृष्ठ 23)
हालांकि इस कविता में भी केवल निराशा नहीं है। संकेत है-
'अचानक
एक बुढ़िया ने उन्हें देखा
ज़रूर ज़रूर
वे पानी की तलाश में आये हैं
उसने सोचा
वह रसोई में गयी
और आंगन के बीचोबीच
लाकर रख दिया
एक जलभरा कटोरा।'
बुढ़िया का पानी की तलाश में आये सारसों के लिए जलभरा कटोरा रखना ही अकाल में दूब की स्थिति है। यहां संवेदना के अकाल की स्थिति में दूब है। 'लोक संवेदना में अकाल के दिनों में दूब पानी का, जीवन का, प्राण तत्त्व का पर्याय है।'(रोहिताश्व, मिट्टी की रोशनी, सम्पादकः त्रिपाठी, अनिल,शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 74) 'अकाल में दूब' कविता में इसकी बानगी देखें-
'कहते हैं पिता
ऐसा अकाल कभी नहीं देखा
ऐसा अकाल कि बस्ती में
दूब तक झुलस जाय
सुना नहीं कभी
x x x x x x x x x
अचानक मुझे दिख जाती है
शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच
एक हरी पत्ती
दूब है
हां-हां दूब है-
पहचानता हूं मैं
लौटकर यह खबर
देता हूं पिता को
अंधेरे में भी
दमक उठता है उनकी चेहरा
है-अभी बहुत कुछ है
अगर बची है दूब।'
(अकाल में दूब, अकाल में सारस, पृष्ठ 20/21)
पहली नज़र में किसी को लग सकता है कि विषय वस्तु के चयन के लिहाज़ से ये कविताएं यथार्थपरक होते हुए भी वह अन्ततः कलारूप को ही अधिक तरज़ीह देती प्रतीत होती है, किन्तु ऐसा है नहीं। दरअसल बाह्य उपकरणों, कवि के औज़ारों को ही कथ्य मान लेने से ऐसा भ्रम होता है केदार जी के यहां वस्तु जगत एक भाव जगत तक ले जाने का माध्यम है यहां भी ऐसा ही हुआ है। दूसरे कवि का वस्तु जगत के प्रति गहरा लगाव, उसके स्वभाव और व्यवहार के प्रति गहन अध्ययन और चिन्ता यह भ्रम पैदा कर देता है कि वही मुख्य अभिप्रेय हैं उपादान नहीं। केदार जी ने अपने कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए अकाल में सारस कविता में फ़ेटेसी का सहारा लेते हैं। यही कारण है कि विनोद दास जैसे कवि आलोचक लिखते हैं 'अकाल के भयावह और जटिल यथार्थ रूपों के अन्वेषण के बजाय इस कविता के विन्यास में एक रोमानी नाटकीयता अन्तर्निहित है। पूरा प्रसंग एक समारोह सदृश्य लगता है। शब्दमोह और चित्रमोह के चलते वास्तविकता पर कवि की पकड़ ढीली पड़ जाती है। दरअसल यह कवि की भाव-बोध की दुर्बलता है।' (कविता यही करती है, दास, विनोद, पहल पुस्तिका/अंक-37, 763, अग्रवाल कालोनी, जबलपुर, पृष्ठ 39)
इन दोनों कविताओं के बारे में रोहिताश्व की टिप्पणी इन दोनों कविताओं के मर्म के अधिक करीब पड़ती हैं-'अकाल में दूब कविता विपरीत स्थितियों में, सूखे अकाल की स्थिति में दूब के अगर बचे रहने की गवाही देती है तो यह अकाल की विषमता के समानान्तर आशा-विश्वास और जीवन सौन्दर्य की अनुभूति है, यहां नश्वरता के बरक्स अनश्वरता का सौन्दर्यबोध गतिशील है। वस्तुतः 'अकाल में सारस' मानवीय विसंगतियों को रेखांकित करने वाला ऐन्द्रिय जगत की संवेदना के ख़ात्मों का वह सौन्दर्यबोधी परिदृश्य है जो हमें उस अभाव की पूर्ति हेतु मनुष्यता और रागात्मकता की सक्रियता अपनाने का संदेश देता है।' (रोहिताश्व, मिट्टी की रोशनी, सम्पादकः त्रिपाठी, अनिल,शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 76)
'अकाल और सारस' में जीवन और मृत्यु को लेकर कई कविताएं हैं जो कैंसर से जूझती उनकी पत्नी के संदर्भ से जुड़ी होने के कारण आत्मपरक होते हुए भी अपने शिल्प व कथ्य के वैशिष्ट के चलते उतनी ही सार्वजनीन भी हैं। इन कविताओं में मृत्यु के पंजा लड़ाती अड़ियल सांस है और जीवन मृत्यु को लेकर कवि के मन में गहराई से उठते प्रश्न व उनका सामना करने का जीवट। कुछ कविताएं प्रत्यक्ष है तो कुछ में परोक्ष रूप से जीवन-मृत्यु के प्रश्नों से जुड़ी हुई। न होने की गंध, अड़ियल सांस, पर्वस्नान, सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से ग़ुजरते हुए, लोककथा जैसी कविताओं के केन्द्र में मृत्यु भी है। मृत्यु के बाद एक टीस न होने की गंध में तब्दील हो जाती है-
'सबसे अधिक खाली थे हमारे कंधे' (न होने की गंध, अकाल में सारस, पृष्ठ45)
इसके लिए बस्ती में एक गहरी उदासी थी
'यों हम लौट आये
जीवितों की एक लम्बी उदास बिरादरी में' (न होने की गंध, अकाल में सारस, पृष्ठ46)
अभाव को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने होने को न होने और न होने को होने में तब्दील कर दिया है-
'कुछ नहीं था
सिर्फ़ कच्ची दीवारों
और भीगी खपरैलों से
किसी के न होने की
गंध आ रही थी'(न होने की गंध, अकाल में सारस, पृष्ठ 46)
इन कविताओं में स्थितियों का वर्णन है, जो स्थिति की तल्खी को शिद्दत से महसूस करने पर पाठक को विवश कर देता है। 'केदारनाथ सिंह चीज़ों का वर्णन ठीक-ठीक करने वाले हिन्दी के विरले कवियों में से हैं और चीज़ों का ठीक-ठीक वर्णन जहां एक ओर सौन्दर्य और उल्सास की ओर ले जाता है वहां जीवन की विसंगतियों, एब्सर्डिटीज की ओर भी ले जाता है।' (विष्णु खरे, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ 240)
मृत्यु के सवालों से इस संग्रह में वे बेतरह जूझते हैं। ज़्यादातर पत्नी की मृत्यु पर लिखी इस संग्रह की कविताओं के क्रम में ही वे अपने जीवन के बारे में सोचते हैं जिसमें मृत्यु की बात प्रकारांतर से विद्यमान है। मृत्यु के सम्बंध में खयाल जीवन के खयाल से परोक्ष रूप से जुड़ा हुआ है किसी के लिए मृत्यु क्या है यह जानने के लिए यह जानना कम नहीं है कि उसके लिए जीवन क्या है-
'मेरा जीवन
एक दोना है
सींक से बुना हुआ पत्तों का दोना
जिसमें मेरे जन्म के दिन से ही
टप् टप् टपक रही है धूप
मैं उसे पीता हूं
और जितना पीता हूं
उतना ही बूंद-बूंद भरता जाता है मेरा दोना
दोना ही तो है
कोई एक दिन उठाकर फेंक देगा बाहर
पर उसी को लेकर अपने दोनों हाथों में
मैं सूर्य से भी ज़्यादा सम्पन्न हूं
इस पृथ्वी पर।' (जन्म दिन की धूप में, अकाल में सारस, पृष्ठ 64-65)
केदार जी के लिए सूर्य से भी अधिक सम्पन्न होने की बात है इसलिए मृत्यु उन्हें अधिक त्रासद और ससह्य है। विपन्नकारी।' मृत्यु की चेतना, ज़िन्दगी के तिल-तिल को सम्भाल कर-जुगा कर जीने की उत्कट लालसा, उनकी अनेक कविताओं में देखने को मिलती है।' (सिंह, भगवान, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ 77)
जीवन मृत्यु से जुड़ी एक और कविता है इस संग्रह में 'एक दिन भक् से'-
'एक दिन भक् से
मूंगा मोती
हल्दी प्याज
कबीर निराला
झींगुर कुहासा
सभी के आशय स्पष्ट हो जायेंगे
जैसे धूप
खपरैलों पर
जाते-जाते यकायक
स्पष्ट हो जाती है।' (एक दिन भक् से,सिंह केदारनाथ, अकाल में सारस, पृष्ठ 83)
लोकमान्यता है कि मृत्यु के पूर्व किसी व्यक्ति को सब कुछ साफ-साफ दिखायी देने लगता है सारे आशय स्पष्ट हो जाते हैं। इसी मनोभूमि पर एक कालजयी कृति सी, टहलते हुए बूढ़े कविताओं भी हैं जिनमें जीवन मृत्यु के प्रश्न विद्यमान हैं।
हालांकि मृत्यु को स्वाभाविक तौर पर स्वीकारने का प्रयास भी उन्होंने किया है। प्रकृति की अन्य स्वाभाविक प्रक्रियाओं में से मृत्यु को एक मानने की उपक्रम दीखता है-
'जैसे आकाश में तारे
जल में जलकुम्भी
हवा में आक्सीजन
पृथ्वी पर उसी तरह
मैं
तुम
हवा
मृत्यु
सरसों के फूल।' (फलों में स्वाद की तरह, अकाल में सारस, पृष्ठ 15)
इन पंक्तियों में मृत्यु का दंश नहीं है। मृत्यु के सम्बंध में दर्शन है जो अन्य को समझाने के उपक्रम में रचा प्रतीत होता है। 'मृत्यु' के बाद 'सरसों का फूल' लिखकर उन्होंने मृत्यु जैसे गंभीर मसले को प्रकृति की साधारण और अनिवार्य प्रक्रिया का हिस्सा बनाने का प्रयास किया है। कोई भी स्थिति असह्य नहीं है। प्रिय अप्रिय सब समान भाव से ग्रहण करने की मनःस्थिति का द्योतक है। इस कविता में आगे वे लिखते हैं-
'जैसे दियासलाई में काठी
घर में दरवाज़े
पीठ में फोड़ा
फलों में स्वाद
उसी तरह
उसी तरह।' ( (फलों में स्वाद की तरह, अकाल में सारस, पृष्ठ 15)
पीड़ा को स्वाभाविक बनाने की प्रयास यहां भी है वरना 'पीठ में फोड़ा' जैसी अस्वाभाविक स्थिति को 'फलों में स्वाद' जैसी स्वाभाविक स्थिति के क्रम में नहीं जोड़ते। पीठ में रीढ़ स्वाभाविक है किन्तु फोड़ा नहीं। साफ़ पता चलता है कि असामान्य स्थितियों को भी वे सामान्यकृत करने का प्रयास कर रहे हैं।' केदारनाथ सिंह दो विपरीत संवेगों, दृश्य चित्रों और भावानुभूतियों को परिवेशगत तनाव में रचते हैं।' (रोहिताश्व, मिट्टी की रोशनी, सम्पादकः त्रिपाठी, अनिल,शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 61)
केदार जी जीवन मृत्यु के प्रश्नों पर विचार करते समय केवल मनुष्य तक ही सीमित नहीं रह जाते। वे एक कवि के पुनर्जन्म ही नहीं, बल्क़ि वस्तुओं के पुनर्जन्म के बारे में भी सोचते हैं-
'लेकिन प्रिय पाठक
एक कवि का काम चलता नहीं है
अगले जनम के बिना
वह यही तो करता है अधिक से अधिक
कि लोगों में
यहां तक कि चीज़ों में भी
हमेशा बनी रहे
बार-बार जनम लेते रहने की इच्छा।' (प्रिय पाठक, सिंह केदारनाथ, अकाल में सारस, पृष्ठ 108)
मृत्यु के साक्षात की स्वाभाविक कविता है 'सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से गुज़रते हुए'-
' भर लो
ताकती हुई आंखों का
अथाह सन्नाटा
सिवानों पर स्यारों के
फेंकरने की आवाज़ें
बिच्छुओं के
उठे हुए डंकों की
सारी बेचैनी
आत्मा में भर लो।'
x x x x x x x x x x x x x x x
इससे पहले कि भूख का हांका पड़े
और अंधरा तुम्हें चीथ डाले
भर लो
इस पूरे ब्रह्मांड को
एक छोटी सी सांस की डिबिया में भर लो।'
(सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से गु़जरते हुए, अकाल में सारस, पृष्ठ 17)
भूख यहां पर मृत्यु है। मृत्यु को सम्मुख पाकर जीवन के प्रति गहरी आसक्ति और प्रबल हो उठती है।-'अकाल में सारस की उन कविताओं में जिनमें कवि अपनी परिचित और आत्मीय दुनिया में वापस आता हुआ दिखायी पड़ता है वे कविताएं निःसंदेह कवि की सबसे सुन्दर कविताएं हैं और आज के दौर की स्मरणीय कविताएं। x x x x x x x x अकाल में सारस में इसी शीर्षक की कविता को मिलाकर ऐसी अनेक कविताएं हैं जिनमें केदार जी बार-बार मुड़कर अपने काव्य उपकरणों, आधारों और बिम्बों की ओर लौटते हुए दिखायी देते हैं, जो उनकी पहले की कविताओं में भी मौज़ूद है।x x x x x x x x इसका अर्थ यह नहीं है कि केदार जी इन कविताओं में कहीं पीछे की ओर लौटते हैं और वहीं ठहरे हुए रहना चाहते हैं बल्क़ि इसका अर्थ यह है कि वे इन आधारों को मज़बूती से थामे हुए जीवन के नये अर्थों को आविष्कृत करते हैं।' (कुमार, सुरेश, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ134)
इस संग्रह से गुज़रकर पाठक को कवि केदारनाथ सिंह का एक ऐसा चेहरा सामने आता है जो आगे की राह तो पुख्ता करता है किन्तु पीछे छूटे अपने महत्त्वपूर्ण आधारों पर अपनी पकड़ पहले की अपेक्षा मज़बूत करता चलता है वापसी का कवि कहे जाने का ज़ोखिम उठाते हुए भी। कवि का आत्मसंघर्ष अपेक्षाकृत तेज़ हुआ है और उसमें रूप और वस्तु के प्रति आश्वस्ति का बोध कम हुआ है। पिछले संग्रह में उसका जो स्वर मुखर हुआ था अब वह संयत हो चुका है। दूसरे जीवन-मुत्यु के संघर्ष इसका लगभग मूल स्वर बना है जो पहले नहीं था। गांव के जीवन के प्रति उसका लगाव बना हुआ है किन्तु उसका स्वरूप बदला है। इस सम्बंध में उसकी रुमानियत कम हुई है किन्तु लगाव नहीं। अरुण कमल ने ठीक कहा है-'गांव और गांव के सन्दर्भ बिल्कुल नये ढंग से इन कविताओं में आये हैं। गांव पर लिखी कविताएं प्रायः आंचलिक हो जाती हैं, स्वयं भी ग्रामीण लगने लगती हैं। साथ ही साथ एक प्रकार के मोह का भाव भी यहां रहता है। गांव का जीवन प्रायः नॉस्टेल्जिया के साथ कविता में आता है। केदारनाथ सिंह ने इन कविताओं के जरिये गांव को एक नये ढंग से, आधुनिक तरीक़े से देखने की कोशिश की है। संभवतः यह ऐसी पहली महत्त्वपूर्ण कोशिश है। इसीलिए उनके गांव पुराने तरह के पारम्परिक गांव नहीं हैं जिनकी स्तुति हिन्दी कविता ने निरन्तर की है। यहां गांव का जीवन कोई पृथक् निर्दोष जीवन नहीं है-कोई स्वायत्त अंचल नहीं है। यह शेष सम्पर्ण जीवन में ही प्रशस्त है। वास्तव जीवन में एक ही है-एक ही पीड़ा और संघर्ष का विस्तार। 'सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से ग़ुजरते हुए' के उपर्युक्त पाठ से यह स्पष्ट है। इन कविताओं की सबसे बड़ी ख़ूबी है-आंचलिकता से मुक्ति।' (कमल, अरुण, कवि केदारनाथ सिंह, पृष्ठ 218)
यहां इस सदर्भ में यह और जोड़ना ठीक रहेगा कि गांव हो या शहर प्रकृति के प्रति उनका अनुराग बरकार है और उसका भी विस्तार हुआ है नयी अर्थ सघनता आयी है। प्रकृति के क्रिया कलापों के बाह्य चित्रण के साथ-साथ वे उसके आन्तरिक गुणों से भी जुड़ते नज़र आते हैं। वे फल से उसका स्वाद तक पहुंचे हैं। अब वे मनुष्य के प्रकृति के रिश्ते तो शिद्दत से महसूस करते हैं। 'नये शहर में बरगद' को वे अपने घर चाय पर ले जाना चाहते हैं। बालू का स्पर्श उन्हें रोमांचित करता है। प्रकृति का सहज साहचर्य और उसके आनंद को भी उन्होंने इस संग्रह में पर्याप्त स्थान दिया है-
'अच्छा लगा बालू का स्पर्श
बहुत-बहुत अच्छा लगा
सोचता रहा देर तक
आख़िर छोटे-छोटे कणों की लहक
और छटपटाहट के अलावा
क्या है
क्या है बालू में
जो आदमी को कर दे
इतना विभोर।' (बालू का स्पर्श, सिंह केदारनाथ, पृष्ठ 38-39)
संग्रह में 'चिट्ठी' कविता में अपने गांव चकिया को याद करते हैं तो 'आंकुसपुर' स्टेशन पर ट्रेनों के न रुकने की कसक उन्हें सालती है। 'कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिये' कविता में जीवन के मर्म भी हैं और उनकी कविता की प्रतिबद्धताएं भीं, जो उनकी लोकसम्पृक्ति को प्रकट करती हैं।
'अकाल में सारस' में 'बाजार एक तकलीफ़देह संदर्भबिन्दु के मानिन्द उनके इस कविता संग्रह में बार-बार उभरता है।'(चतुर्वेदी, पंकज, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 139) बाज़ार और आदमी के रिश्ते पर पिछले संग्रहों में भी उनकी कविताएं थीं किन्तु इस रिश्ते पर उन्होंने फिर गंभीर दृष्टि डाली है। एक छोटा सा अनुरोध, दाने, पशुमेला आदि कविताएं बाज़ार पर लिखी गयी हैं। वे बाज़ार को दरकिनार करने के हिमायती रहे हैं। वे कहते हैं-
कैसा रहे
बाज़ार न आये बीच में
और हम एक बार
चुपके से मिल आयें चावल से
मिल आयें नमक से
पुदीने से।(एक छोटा सा अनुरोध, पृष्ठ14)

Sunday 1 November 2009

उत्तर कबीर और अन्य कविताएं: एक विवेचन


1995 में केदारनाथ सिंह का कविता संग्रह 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएं' प्रकाशितहुआ। इस संग्रह में सबसे तेज कोई अनुभूति परिलक्षित होती है तो वह है विस्थापन की, जिसका आरम्भ उनके पिछले संग्रह 'अकाल में सारस' में ही हो गया था किन्तु इसमेंविस्थापन की पीड़ा का दोहरा स्तर देखने को मिलते है। तीन अन्य तत्त्व भी हैं जो इससंग्रह में विशेष ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं उसमें एक है प्रश्नाकूलता, दूसराएक खास तरह की अध्यात्मिकता और तीसरा भाषा, अर्थ व विचार से जुड़े उपकरणों कोकविता के लिए प्रायः द्वितीयक बनाने का कौतुक करते हुए स्वायत्तता प्रदान करना।
केदार जी में 'विस्थापन का भाव शहर में हो रहे विस्थापन की आशंका से आता है, जो जैसा कि था, पहलेप्रतिरक्षा के भाव की ही उपज था। यहां कवि पर शहर का दबाव, बल्कि शिष्ट का दबाव, इतना ज़्यादा है किबार-बार वह गांव की ओर जाता है। पहले यह एक लाचारी रहा है, बाद में यह आत्मविश्वास व आत्म-प्रसरणका कारण भी बना। इस रूप में कवि स्मृतियों की भी रक्षा का उपाय सोचता है। 'अकाल में सारस' और 'उत्तरकबीर और अन्य कविताएं' संकलनों में यह दबाव अधिक दिखता है। (शुक्ल, श्रीप्रकाश, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 125)
पिछले संग्रह में गांव और शहर दोनों के प्रति विस्थापन का भाव नहीं था। पिछले संग्रह में महानगर दिल्ली कामिज़ाज उन्हें परेशान करता था और वे गांव के गहरी आसक्ति की कविताएं लिख पाये थे किन्तु गांव में भी उसीविस्थापन बोध को महसूस नहीं किया था जो दिल्ली में था। इस संग्रह तक आते-आते उन्हें यह आभास हो जाताहै कि गांव में भी वे परदेसी ही हो चुके हैं-
'अपनी सारी गर्द
और थकान के साथ
अब आ तो गया हूं
पर कैसे साबित हो
कि उनकी आंखों में
मैं कोई तौलिया या सूटकेस नहीं
मैं ही हूं
छू लूं किसी को
लिपट जाऊं किसी से
मिलूं
पर किस तरह मिलूं
कि बस मैं ही मिलूं
और दिल्ली न आये बीच में।' (सिंह, केदारनाथ, गांव आने पर, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, राजकमलप्रकाशन, नयी दिल्ली, 1995, पृष्ठ 12 )
दिल्ली में विस्थापन बोध की कविता है 'कुदाल', जिसमें कुदाल के माध्यम से कहा गया है कि किस प्रकार वहांगांव-देहात उपकरण विस्थापित हो जाते हैं। गांव से लगाव रखने वाले व्यक्ति के लिए गांव जुड़ी वस्तुओं व बोधका विस्थापित होना भी उसका अपना विस्थापन ही है-
'अन्त में कुदाल के सामने रुककर
मैंने कुछ देर सोचा कुदाल के बारे में
सोचते हुए लगा उसे कंधे पर रखकर
किसी अदृश्य अदालत में खड़ा हूं
पृथ्वी पर कुदाल के होने की गवाही में
पर सवाल अब भी वहीं था
वहीं जहां उसे रखकर चला गया था माली
मेरे लिए सदी का सबसे अधिक कठिन सवाल
कि क्या हो-अब क्या हो कुदाल का
क्योंकि अंधेरा बढ़ता जा रहा था
और अंधेरे में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था
कुदाल का क़द
और अब उसे दरवाज़े पर छोड़ना
ख़तरनाक़ था
सड़क पर रख देना असंभव
मेरे घर में कुदाल के लिए ज़गह नहीं थी।' (सिंह, केदारनाथ, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, कुदाल, पृष्ठ
गांव के विकास और बदलाव को भी वे सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पाते। वे गांव के उस पुराने आत्मीय दृश्यको खोजते हैं जो नहीं मिलता और उन्हें आहत करता है, उनमें टीस और कसक पैदा करता है-
'कुत्ते भूंकते हैं
जैसे कुत्ते भूंकते हैं
पर स्थान
और समय के बीच
जहां भी फांक थी
उसे सीमेंट से अच्छी तरह
भर दिया गया है
और अब यह सब
एक लय में है
यहां तक कि एक लय है
महामारी के जाने
और दूरदर्शन के आने में भी
आना नहीं पड़ता
अब डाकिये को शहर से
थैला लटकाए हुए
यहीं कहीं रहता है
दस
या बीस घर बाद
पर दिखता नहीं है अब
मां को वह कहीं भी
वह तो उसे जानती थी
उसके बड़े थैले के
हिलने के छंद से
बाहर से
नहीं मिलता उत्तर
तो कभी-कभी ख़ुद से ही
पूछती है वह-
यह कैसे हुआ
कि डाकघर आया
और खो गया डाकिया?'
(सिंह, केदारनाथ, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, विकास कथा, पृष्ठ 42/43)
दिल्ली के सभ्य जगत के परिवेश के तौर-तरीके उनके लिए आहतकारी हैं-
'कौन हैं ये लोग
जो कई बार बग़ल से गुज़रते हुए
मेरे इतने पास होते हैं-इतने अधिक पास
कि इनकी सांसों का स्पर्श
उड़ा देता है मेरी चिन्दियां
इनकी आंखों की चुप्पी
उधेड़ लेती है मेरी खाल
कौन हैं ये लोग
जिनसे दूर-दूर तक
मेरा कोई रिश्ता नहीं
पर जिनके बिना
पृथ्वी पर हो जाऊंगा
सबसे दरिद्र।'(सिंह, केदारनाथ, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, जो रोज़ दिखते हैं सड़क पर, पृष्ठ 94)
अपनी रचनाओं में दिल्ली और गांव के अंतरसम्बंध को उजागर करते हुए स्वयं केदार जी कहते हैं- 'दिल्लीआकर शायद दिल्ली के कंट्रास्ट के चलते मैंने अपने गांव को अपने भीतर ज़्यादा खोजने और पाने की कोशिशकी। मेरी गांव से जुड़ी ज़्यादातर कविताएं इसी दौर में लिखी गयीं। एक विचित्र बात यह है कि पिछले दिनों गांवजाकर भी मैंने उसी विस्थापन का अनुभव किया जो दिल्ली में करता हूं। मेरे जैसे बहुत से लोगों की विडम्बना यहहै कि अपना मूल निवास तो छूट गया, पर जहां रहते रहे उसके साथ घर जैसी आत्मीयता कभी नहीं बनी। इससारी स्थिति का मेरी कविता पर ख़ास प्रभाव है, जिसे स्पष्ट ही लक्ष्य किया जा सकता है।' (मेरेसाक्षात्कार: केदारनाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2003, पृष्ठ 136)
केदारनाथ सिंह की इधर की कविताओं में प्रश्नाकूलता बढ़ी है। प्रश्न उनके काव्य स्वभाव का हिस्सा रहा हैकिन्तु इस संग्रह में प्रश्न व्यापक स्थान घेरता है। यह प्रश्न ही है जो यह बताया है कि वे गहरे संशय में औरसंशय की स्थिति उन्हें विविध दिशाओं में ले जाती है। प्रश्न स्वयं अपने से भी हैं और जग से भी। आत्म औरपर का अलगाव यूं भी उनके यहां बहुत सम्भव नहीं है। कहना न होगा कि सार्थक प्रश्न स्वयं अपने में उत्तरभी होते हैं और यहां भी हुआ है। कई कविताओं का समापन ही प्रश्न से हुआ है। 'गांव आने पर' कविता में वे पूछतेहैं-
'क्या है कोई उपाय
कि आदमी सही-साबूत निकल जाये गली से
और बिल्ली न आये बीच में?'(पृष्ठ 12)
'कुदाल' में वे कहते हैं-
'मेरे लिए मेरी सदी का सबसे कठिन सवाल
कि क्या हो-अब क्यो हो कुदाल का? '(पृष्ठ 18)
'नमक' कविता में सवाल है-
'न सही दाल
कुछ-न-कुछ फीका ज़रूर है
सब सोच रहे थे
लेकिन वह क्या है?' (पृष्ठ 20/21)
'पंचनामा' कविता में वे पूछते हैं-
'अब दोष किसे दूं
पुलिस को
कि लाश को?' (पृष्ठ 23)
'घर का विचार' कविता में पूछते हैं-
'अब इस पर बहस से
कोई फ़ायदा नहीं
कि उसने जो हवा से कहा-थू..
उसके दायरे में
सिर्फ़ कुंडी आती थी
या पूरा घर? '(पृष्ठ 26)
'विकास-कथा' में उनका सवाल है-
'यह कैसे हुआ
कि डाकघर आया
और खो गया डाकिया? '(पृष्ठ 43)
'हस्ताक्षर' कविता में भी सवाल खड़ा है-
'पर अब सवाल यह था
कि तय कैसे हो
और हो तो किस अदालत में
कि कौन-सा हस्ताक्षर जाली है
मेरा या हवा का?' (पृष्ठ 48)
'आंकड़ों के धुंधलके में' कविता में लोग इस प्रश्न से जूझ रहे हैं-
'पर कहां गया पैसा?
कौन-से जोड़ से घट गया था वह?
छिप गया था जाकर
किस गुणा-भाग के अंधेरे कोने में?' (पृष्ठ 51)
'जिसे भेजा गया दूसरे शहर में' कविता की पंक्तियां देखें-
'ठीक अपनी नाक की सीध में
भागा जा रहा था वह
यह सोचता हुआ
कि उस शहर की बत्तियां (किस शहर की?)
अगर अब भी नहीं दिखीं
तो उस अन्तहीन सड़का पर
उसे मुड़ना कहां होगा?' (पृष्ठ 57)
'खरोंच' कविता में वे कहते हैं-
'मैं इस खरोंच को लेकर
पंढरपुर जाना चाहता हूं
लेकिन पंढरपुर क्यों? '(पृष्ठ 61)
दरअसल अपनी प्रश्नाकूलता का जवाब वे अपने प्रश्नों वाली ही एक कविता में यूं देते हैं-
'जो सड़ रहा है
और ज़ाहिर है कि बहुत-कुछ है
जो कि सड़ रहा है
क्या मैं उसे बचा सकता हूं
कविता लिखकर?
फिर क्यों यह तम्बू
क्यों यह तामझाम
क्यों यह अश्लीलता हार की
और पुरस्कार की
क्यों नहीं भट्ठी गरमाना
क्यों नहीं साइकिल में हवा भरना
क्यों नहीं पत्तल में
सींके लगाना
क्यों नहीं
आख़िर क्यों नहीं सोचना
कि सोचने से पहले और सोचने के बाद
जो बच जाता है ढेर सारा
उसे रखा कहां जाय?'
वे कविता, सभ्यता, जीवन के तामझाम और मनुष्य की नियति से जुड़े सवालों को उठाते हैं औचित्य पूछते हैं।सोचने के पहले और सोचने के बाद के बचे के प्रश्न ही उन्हें अर्थवान बनाते हैं। वही चिन्तनशीलता की आग कोबचाये रखता है और यही वह मार्ग है जो उन्हें अध्यात्म की ओर ले जाता दीखता है। क्या यह अनायास है कि वेकबीर पर लम्बी कविता लिखते हैं और संत तुकाराम के गांव पंढरपुर जाने के बारे में पूछते हैं। कवि के तौर पर वेप्रश्न पूछने के औचित्य का उत्तर देते हैं-
'पूछो कि पूछने से भाषाएं
ज़िन्दा रहती हैं।' (पृष्ठ 85)
भाषा के सम्बंध में भी इस संग्रह में बेहद संशय में हैं और इस बात की लगातार शिनाख्त करते दिखायी देते हैं किभाषा कहां है, कैसे बचेगी और कहां विफल है, कहां विकसित किये जाने की आवश्यकता है और इस क्रम में उन्हेंइस बात का आभास भी होता है कि भाषा को अभी विकसित होना बचा है-
'जितनी वह चुप थी
बस उतनी ही भाषा
बची थी मेरे पास।' (उसकी चुप्पी ,पृष्ठ 89)
'पांचवीं चिट्ठी' कविता में वे कहते हैं-
'और यह भी हो सकता है
कि उस शहर में भाषा ही हो गयी हो गुल
बिजली की तरह
आख़िर भाषा भी तो शहर में
एक बिजली ही है।' (पृष्ठ 93)
'सास्युअर के शब्दों में कह सकता हूं कि केदार मुख्यतः Parole (वाक्) के कवि हैं, Longue (भाषा) के नहीं। भाषाऔर वाक् के बीच जो जटिल तनाव और डिफरेंस है वहीं कहीं केदार जी हैं। वह सही मायनों में भाषा और वाक् कीसारी ताक़त को हस्तामलक कर उसे कौतुक की सीमा तक ले जाते हैं और पूरा लुत्फ लेते हैं। जैसे कोई सिद्धसंगीतकार अपनी उंगलियों से अपने वाद्ययंत्र पर स्वरों एवं सुरों का खेल खेलता हो।' ( त्रिपाठी, अनिल, मिट्टीकी रोशनी, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 201)
वे अपनी भाषा ही नहीं बल्क़ि समूची मनुष्यता की भाषा के लिए बहुत कुछ करने को बेचैन दिखायी देते हैं-
'मुझे मिलना ही होगा
उस दढ़ियल कवि से
जानना ही होगा उसकी भाषा का दुख
उसकी लय के झटके
उसकी चुप्पी की चीर-फाड़
उसका वह लहूलुहान युद्ध
जो सबकी ओर से उसे हर रात लड़ना पड़ता है
अपनी भाषा की सबसे खूंखार तुकों से
मुझे जाना ही होगा ज़िल्दाना
अगर ज़िल्दाना कहीं हो
अगर वह न ह
तो फिर अपने लिए
और अपनी समूची भाषा के लिए
मुझे पैदा ही करना होगा ज़िल्दाना
चाहे जैसे भी हो।' (ज़िल्दाना कहां है, पृष्ठ 115)
यहां ज़िल्दाना के बहाने कवि प्रकारांतर से उनकी भाषा की बात कर रहा है जो मानवेतर हैं या फिर मानव भी हैंतो उनके अव्यक्त पहलुओं व्यथाओं व उल्लास को व्यक्त करने की ज़रूरत महसूस करता है उसे गुरुतर मानताहै। वह मानता है कि भाषा के क्षेत्र में अभी बहुत काम बाकी है। और यही कारण है कि केदारजी इस संग्रह मेंकई स्थानों पर भाषा से लगभग खेलते हुए कविता में कौतुक रचते हैं। वे महसूस करते हैं कि-
'और फिर भी कितना राग है
और कैसी एक लय
दुनिया के सारे अनाप-शनाप
और अगड़म-बगड़म में (उत्तर कबीर, पृष्ठ140)'
इतना ही नहीं वे जानते हैं कि चुप्पी में भी एक भाषा है
'पर यदि दो लोग चुप हों
पास-पास बैठे हुए
तो उतनी देर
भाषा के गर्भ में
चुपचाप बनती रहती है
एक और भाषा।' (कुछ और टुकड़े, पृष्ठ 98)
केदार जी ने जिस ताजा निरक्षरता को बचाने की हिमायत की है वहीं वे खड़े हैं जहां वे वस्तुओं के बारे में बनीगलत अवधारणाओं को ध्वस्त करते चलते हैं या फिर उन्हें नयी अर्थवत्ता प्रदान करने के लिए नये शब्द औरनये मुहावरे गढ़ रहे होते हैं।
कविता में कौतुक रचने की दिशा में भी उनकी कविताएं हैं तस्वीर, दाढ़ी बनाते हुए, आज का बाज़ार भाव, जड़ें, खर्राटे, शिलान्यास, घर का विचार, कुरुक्षेत्र में चाय, न्यूयार्क में क़ब्रिस्तान देखकर, आंकड़ों के धुंधलके में, जिसे भेजा गया उस दूसरे शहर में, खरोंच, मधुमक्खियों का हमला में इसके प्रयास देखे जा सकते हैं। इनकविताओं में भाषा के एक नये बर्ताव या कविता के किसी तार्किक परिणति तक पहुंचने की परवाह नहीं करतेबल्कि वे वस्तु या विषय की अपनी संरचना और स्वभाव पर छोड़ देते हैं। 'प्रकृति के साथ आदिम रिश्ते औरजटिलताओं के बीच भी टटकेपन के अहसास को काव्यात्मक अभिव्यक्त देने का प्रयास किया है। यही कारण हैकि नामवर सिंह को केदारनाथ सिंह के इस संग्रह की कविताओं में धारोष्ण अनुभव की अनुभूति होती है।' (सहाय, निरंजन, केदारनाथ सिंह और उनका समय, शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 151) ये कविताएं कविता के परम्परागत तरीकों के किसी हद तक स्वायत्त हैं। मनुष्येतर संसारको संवेदनशील नज़रिये से देखा गया है और उनके कार्यव्यापार पूरी गरिमा के साथ उपस्थित हैं जैसे 'खुलेपन मेंपहिया'। शायद इन्हीं कविताओं के लिए 'शब्द पर दस्तक' जैसी कविता है जिसमें एक चिड़िया चीं..ची.. चांय..चांयकरती शब्दकोश के पन्नों पर दस्तक दे रही है और वे शब्द जो शब्दकोश के अन्दर चिल्ला रहे हैं ज़गह नहीं हैज़गह नहीं है। और केदार जी कहते हैं-
'देखें-हां देखें
जो देख सकते हों
सुबह-सुबह
एक निरर्थक आवाज़ ने
अर्थ की दुनिया में
कैसा हड़कम्प मचा रखा है।' (शब्द पर दस्तक, पृष्ठ 80)
केदार जी की कविता में एक भव्य क़ब्रिस्तान देखकर जीवितों के मुंह में पानी आ जाता है, तो दाढ़ी बनाते वक़्तशीशे में देखते हुए वे अपने ही हाथ के समाने बिलकुल निहत्था महसूस करते हैं। 'आज का बाजार भाव' कविताअख़बार में व्यापार की खबरों की भाषा में है जिसमें वे जोड़ते हैं-
'गाहक भौंचकक्का
शासन अवाक्
सिर्फ़ एक कौआ
भोलता है हवा में
क्राक
क्राक
क्राक।' ( आज का बाज़ार भाव,पृष्ठ 105)
हालांकि इन कविताओं को उत्तर-आधुनिकता से जोड़ना ग़लत होगा। केदार जी का कहना है कि ' उत्तर-आधुनिकता की अवधारणा पश्चिम से आयी है और वहां इस पद से जो अर्थ लिया जाता है, उस अर्थ मेंमैं अपने को उत्तर-आधुनिक नहीं कहूंगा। हां, इस अर्थ में उत्तर-आधुनिक कोई कहना चाहे तो कह सकता हैकि मेरी कविता आधनुकता के उत्तर चरण में लिखी जाने वाली कविता है।' (सिंह, केदानाथ, केदारनाथ सिंहः मेरेसाक्षात्कार, पृष्ठ 132) उत्तर-आधुनिकता पर कटाक्ष करती हुई एक कविता भी उन्होंने इस संग्रह में लिखीहै-
'बल्कि वे भी
जो किन्हीं लुप्त चरागाहों में
कहीं बची हुई घास के
किसी अन्तिम छोर पर
बकरियां चराते हैं
और चराते-चराते इतना समय हुआ
कि भूल गये हैं
अपने सारे गाने
वे भी
वे भी
वे भी आधुनिक हैं
या उत्तर आधुनिक
या आधुनिक के उत्तर
या पता नहीं क्या?
मेरे कान इन शब्दों से
पक गये हैं।' (विमर्श, पृष्ठ 44) केदार जी में जो नव्यता के आयाम हैं वे समय के ज्वलंत प्रश्नों की टकराहटका परिणाम हैं ना कि हर आने जाने वाले साहित्यिक आंदोलनों की उपज, इसका ताज़ा उदाहरण यह कविता भीहै। यह कविता उस दौर में लिखी जा रही है जब उत्तर-आधुनिकता को शोर हिन्दी साहित्य में भी मचा है।
इस संग्रह तक आकर केदार जी 'पाणिनी से झगड़ते हैं। पाणिनी से मतलब व्याकरण से जहां अर्थ की सारीसंभावनाएं निचुड़ जाती हैं। वैसे भी व्याकरण भाषा का वह उपनिवेश है जहां की सिर्फ़ पक्का माल ही बिकता है।कच्चा माल नहीं। जबकि यह कच्चापन ही कुम्हार की कच्ची मिट्टी की तरह सबसे काम की चीज़ है, फिर तोउस पर निर्भर है वह इसे किस रूप में ढालता है।' ( त्रिपाठी, अनिल, मिट्टी की रोशनी, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 201)
कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जिनमें उनकी करुणा अध्यात्म के स्तर तक पहुंची है जिनमें एक है बची हुई करुणा, लोरी, नदियां। यह उनकी अध्यात्मिक ऊंचाई ही है कि वे लिखते हैं-
दरख़्तों की छाल
और हमारी त्वचा का गोत्र
एक ही है
परछाइयां भी असल में
नदियां ही हैं
हमीं से फूटकर
हमारी बगल में चुपचाप बहती हुई नदियां। ( नदियां, पृष्ठ 13)
उनकी करुणा की बानगी देखें-
'रात भर बहती रही यमुना
चमकते रहे तारे-रात भर
और रोता रहा वह
जो कई बार एक कुत्ता था
कई बार एक आदमी
और मेरे अन्दर बजती रही
सरपत के सूखे पत्तों की तरह
मेरी बची हुई करुणा
झन्.. झन्..झन्न.. झन्न।' (बची हुई करुणा, पृष्ठ 87)
शहर में उन्हें ठंड पर कविता लिखते समय सबसे पहले गौरैया याद आती है। उन्हें लगता है वह गौरैया ही है जो ठंडको खूब-खूब पहचानती है और दोनों के बीच बहुत कुछ साझा है। यही साझेदारी वे अपने ठंड और गौरैया के बीचस्थापित करते चलते हैं क्योंकि उनके लिए जो साझा है वही बेहद मूल्यवान है और वह दांव पर लगा हुआ है।व्यापक साझेदारी यह काव्य स्वभाव उन्होंने उत्तरोत्तर विकसित किया है, ठंड और गौरैया कविता की बानगीदेखें-
'मौसम की पहली सिहरन
और देखता हूं
अस्तव्यस्त हो गया है सारा शहर
और सिर्फ़ वह गौरैया है जो मेरी भाषा की स्मृति में
वहां ठीक उसी तरह बैठी है
और ख़ूब चहचहा रही है
वह चहचहा रही है
क्योंकि वह ठंड को जानती है
जैसे जानती है वह
अपनी गर्दन के भूरे-भूरे रोओं को
वह जानती है कि वह जिस तरफ़ जायेगी
उसी तरफ़ उड़कर चली जायेगी ठंड भी
क्योंकि ठंड और गौरैया दोनों का
बहुत-कुछ है
बहुत-कुछ साझा और बेहद मूल्यवान
जो इस समय लगा है
दांव पर..।' (सिंह केदारनाथ, ठंड और गौरैया, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, पृष्ठ 125/126)
'इस संग्रह की कविताओं में कवि विडम्बनाओं और विरूपताओं के बीच सच की तलाश की चेष्टा करता है। इसचेष्टा में संशय और संदेह भी आता है जो ज्ञान-मीमांसा की एक आवश्यक कड़ी होती है। केदार जी अपने बिम्बोंको दैनिक जीवन से चुनते हैं, इससे कविता की सम्वादधर्मिता में बढ़ोत्तरी होती है। 'उत्तर कबीर और अन्यकविताएं संग्रह' में प्रयुक्त यह शैली भक्त कवियों की याद दिलाती है।' (सहाय, निरंजन, केदारनाथ सिंह औरउनका समय, शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 210) केदार जी ने उस वस्तुजगत को पूरी गरिमा दी है जिनके बारे लोग पूरी संवेदनशीलता के साथ नहीं सोचते। उनके संकट को मनुष्य केसंकट से जोड़कर उसके साथ अपने साझेपन को नहीं बांटते। इस क्रम में एक कविता कुएं भी है जिनके धीरे-धीरेबेकार होते जाने पर कवि चिन्तित है। 'कुओं के लोप का अर्थ सिर्फ जल के एक स्रोत का दूसरे स्रोत के आजाने पर अप्रासंगिक होना नहीं है, बल्कि उसके साथ जुड़े सामाजिक सम्बंधों की पूरी संरचना का निरर्थक होजाना है।' (अपूर्वानन्द, मिट्टी की रोशनी, पृष्ठ 117)
इस संग्रह में एक कविता है 'दवा की तलाश में एक बेचैन आत्मा' वह कैंसर से पीड़ित अपनी पत्नी पर उन्होंनेलिखी है।
लोक चरित्रों के माध्यम से लोक संन्दर्भों को उपस्थित करने की प्रवृत्ति बाद के कविता संकलनों में कमहोती गयी है। 'अकाल में सारस' और 'उत्तर कबीर' में नहीं ही है। किन्तु 'उत्तर कबीर' में स्वयं इतिहासप्रसिद्ध नायक है; एक ओर कबीर तो दूसरी ओर भिखारी ठाकुर। दोनों का स्रोत लोक जीवन। प्रत्यक्षआंखिन देखी कवि को बड़ी बातें कहनी होती हैं, जिस कारण से वह दो प्रसिद्ध चरित्रों को चुनता है क्योंकि गढ़ाहुआ चरित्र उसके भावों को गहराई विस्तार में व्यक्त करने के लिए शायद नाकाफ़ी लगा हो। इसमें कवि सफलभी हुआ है। 'उत्तर कबीर' में तो कवि एक लोक नायक को चित्र (स्थूल) के रूप में देखकर परेशान है। वह उस हरप्रक्रिया के विरुद्ध जो एक गतिशील वस्तु को स्थूल बनाती है। इमसें कवि अब तक अर्जित अपने समस्तकाव्यगत शिल्प को प्रयोग भी करता है।'(शुक्ल, श्रीप्रकाश, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007 पृष्ठ131) केदार जी यहां कवि कबीर के नाम की कताई मिल में बुने जाने के विरुद्ध हैंक्योंकि वेच चाहते हैं नाम की गरिमा बनी रहे। नाम से एक पूरी संस्कृति जुड़ी होती है। कबीर सूत मिल नामसुनकर ही वे चक्कर में पड़ जाते हैं। वे स्वयं भी विचार करते हैं और लोगों के सामने प्रश्न भी रखते हैं-
'कुत्ते को लोग
क्यों कहते हैं कुत्ता?
चांद भला चांद क्यों है?
सुबह क्यों सुबह है
शाम क्यों शाम?
अगर बोलना है
तो एक दिन उतारने होंगे
सारे-के-सारे छिलके
और अन्दर झांककर देखना ही होगा
कि आख़िर रिश्ता क्या है
नमक ध्वनि
और नमक के स्वाद में?' (पृष्ठ 139)
इस प्रकार इस कविता में केदार जी चाहते हैं कि लोग इस बात का चिन्तन करें कि कबीर क्या थे, उनके मूल्यक्या थे और उनके नाम पर सूत मिल करने का क्या औचित्य है। क्या कबीरदास महज़ एक जुलाहे थे। क्यावस्तुतः वे सूत ही कातते थे। क्या सूत मिल से उनके नाम को जोड़ देने से उनका सांस्कृतिक अवमूल्यन नहीं होरहा है। क्या यह कबीर के होने के अर्थ और परिव्याप्ति को सीमित नहीं कर रहा है। इन सब पर विचार करतेहुए वे कहते हैं-
'सोचता हूं कि कितना अजीब है
लम्बे समय बाद अपने शहर के होठों पर
घिस-घिस कर एक नाम बन जाना
अपनी भाषा के छिद्रों से छनते-छनते
लोगों की स्मृति में
एक कथा बन जाना
एक रूपक बन जाना
कितना भयावह है
और एक दिन उस सबका
चुपके से बदल जाना कबीर सूत मिल में
कितना शानदार है
और कितना दयनीय।' (वही, पृष्ठ 140) और सारी बातों के बीच और कितना दयनीय कहना ही कवि का मूलमंतव्य है।
कवि समय की विडम्बनाओं की चर्चा करते हुए कहता है यह वह समय है जब-
पानी भूल गया है
आग से अपना रिश्ता
आग को याद नहीं
हवा का स्पर्श
हवा बहती है
गंध से कटी-कटी
गंध से टूट गयी है
पृथ्वी की लय
पृथ्वी से बंद है
आकाश की बातचीत
और फिर वे कबीर सूत मिल नाम पर कटाक्ष करते हैं और इस बड़ी विडम्बना का उल्लेख कि-
'ऐसे में एक विराट महाकाव्य
लोगों के ललाट
और वक्षस्थल से झरता है
और आराम से अंट जाता है
एक छोटे से चुटकुले में।' (उत्तर कबीर, पृष्ठ 137)
यह कविता कबीर के बहाने मौज़ूदा समय में संस्कृति व मूल्यों के स्थिति पर एक तल्ख़ टिप्पणी बन कर सामनेआती है। केदार जी समय के संकट को पकड़ने में पूरी तरह से कामयाब रहे हैं और प्रभावी भी-
'एक सुई खो गयी है
पृथ्वी के दिल में
और दर्ज़ी सुई की नोक में
खो गया है
एक मिट्टी के ढेले में
गुम गया है कुम्हार
और बढ़ई लोप हो गया है
चिरती हुई लकड़ी की गंध में
पथेरा अपने सांचे में
ग़ायब हो गया है
साधक चले गये हैं
शवों की तलाश में
कवि अपने शब्दों की फांक में
लापता है
और स्वाद लौट गया है
फिर से गुठली में।'
यह केदार जी की यह लम्बी कविता है। उन्होंने लम्बी कविताएं बेहद कम लिखी हैं। 'उत्तर कबीर' के अलावाबाघ' ही ऐसी कविता है। हालांकि वह इसके काफ़ी लम्बी है और स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। इसमेंवे कबीर के बहाने अपनी सांस्कृतिक धरोहरों, संस्कृति पुरुषों के समाज से जीवित अन्तरसम्बंधों की पड़तालकरते हैं। प्रश्न पूछते हैं और आहत भी होते हैं-
'देखता हूं कि आमी
और दुनिया के बीच
पानी और बानी के जितने रास्ते थे
सब बंद हैं
अब किससे पूछूं
कि पूछना क्या अब ख़ुद कोई रास्ता नहीं है?' (उत्तर कबीर, पृष्ठ 134)
केदार जी दरअसल गतिशील को स्थूल बनाने के पक्षधर नहीं बल्कि स्थूल को गतिशील बनाने के हिमायती रहेहैं। उनकी बहुचर्चित कविता 'मांझी का पुल' अपनी स्थूलता के कारण नहीं बल्कि गतिशीलता के कारणमहत्त्वपूर्ण मानी गयी वहां मांझी का पुल एक ठोस भौतिक पुल नहीं रह जाता बल्कि वह लोगों के मानस मेंटंगा एक पुल बन जाता है। उनके अनुसार 'हर पुल में छिपी रहती है एक नाव।' (सिंह, केदारनाथ, ज़मीन पक रहीहै, मांझी का पुल, पृष्ठ 93)
यहां भी जिस तट पर मगहर बसा है वह आमी नदी और कबीर उनके लिए पानी और बानी का रास्ता हैं और कबीरसूत मिल जैसे उपक्रमों से कबीर के स्थूल हो जाने से ये रास्ते बंद हो जाते हैं। वे तो कबीर के उस सूत को पकड़नाचाहते हैं 'जो कहीं से भी खींचो/कहीं से भी तानो/कम पड़ जाता है' (वही, पृष्ठ 135), क्योंकि दुनिया को कबीर केउस सूत की आवश्यकता है जो सांस्कृतिक सद्भाव के लिए ज़रूरी है। न सिर्फ़ कबीर के नाम पर स्थापितलगभग बंद पड़ी इस कताई मिल के कई ख़िलाफ़ है बल्कि वह इसी क्रम में मगहर को कबीर की अमरता केख़िलाफ़ मानने लगता है क्योंकि मगरह स्थूल है-
'अमरता के ख़िलाफ़
एक लम्बी चीख़ की तरह
फैला है मगरह।' (वही, पृष्ठ 134)
केदारनाथ सिंह का भोजपुरी भाषा व संस्कृति से गहरा लगाव रहा है। वे अपने पैतृक गांव में जाते हैं तो भोजपुरी हीबोलते हैं। भोजपुरी भाषा से जुड़े समारोहों में वे चाव से जाते हैं। भोजपुरी नाट्य निर्देशक, अभिनेता व बिदेशियागीत नाटिका (नाच) के रचयिता भिखारी ठाकुर पर भी इस संग्रह में उन्होंने कविता लिखी है जिन्होंने कला केमाध्यम से जनजागरण में भाग लिया था, जो आज़ादी की लड़ाई का ही एक हिस्सा था। आज़ादी की लड़ाई में उनकेजैसे लोक कलाकारों के योगदान के उल्लेख को भी वे आवश्यक मानते हैं , जो इसमें प्रकट हुआ है। 'कला औरजनजागरण के सघन रिश्ते को प्रकट करने के लिए छुरा से छुटने और नृत्य से जुड़ने के प्रसंग को भिखारीठाकुर के कथा-बिम्ब के माध्यम से भिखारी ठाकुर कविता में प्रस्तुत किया गया है।' (सहाय, निरंजन, केदारनाथ सिंह और उनका समय, शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 211) यहतब का प्रसंग है जब एक समारोह में स्वयं केदार जी ने भिखारी ठाकुर को बोलते हुए सुना था। भिखारी ठाकुर नेउस समारोह में बताया था कि पेशे से हजाम थे और कैसे कला में अभिरुचि के कारण उनके हाथ से उस्तूरा छूटगया और नृत्य, गीत, अभिनय को उन्होंने अपना लिया।


17/18) '

Friday 30 October 2009

ताल्सताय और साइकिल : एक विवेचन


ताल्सताय और साइकिलतक आते-आते केदारनाथ सिंह की कविता की बनावट सघन, निहतार्थ संश्लिष्ट और परिव्याप्ति पहले से व्यापक हो चला है। हर कविता का अपना एक स्वतंत्र संसार और जादू है। हर कविता एक एक नया तिलस्म रचती है, उनकी कविता का भूगोल भी बदला-बदला सा है। पहले भी वे स्मृतियों को मूल्यवान मानते थे किन्तु अब उनकी स्मृतियां गांव देहात की स्मृतियां नहीं रह गयी हैं बल्कि वे सभ्यता के विकास की विभिन्न स्मृतियों को आत्मसात कर चुके हैं। यह उनकी अपनी परिचित दुनिया से कत्तई अलग नहीं लगती हैं। कालखंडों का विभाजन उनके यहां मिट गया है। दिवंगत लोगों का संसार जीवितों की बिरादर में लगातार विद्यमान है और दोनों कहीं कोई भेद नहीं। इतिहास से कोई पात्र सहसा प्रकट हो जाता है बोलता बतियाता है चाहे वे तू फू और ली पै हों या दिवंगत पिता और एकाएक गांव छोड़कर चले गये इब्राहिम मियां ऊंटवाले, जिनका बाद में कोई पता नहीं चला। तालस्ताय की साइकिल भी है जो आज तक घंटी बजाती हुई उससे बाहर निकलने का रास्ता खोज रही है। यह काम केदार जी भी करते दिखायी देते हैं इतिहास से बाहर निकलने की कोशिश है बहुत से मूल्यवान तत्त्वों को। यहां कवि कविता के तमाम उपकरणों से कवि खेलता है, उससे एक जादू रचता है और पुराना जादू ध्वस्त करता चलता है। इस संग्रह में एक स्वतंत्र जीवन दृष्टि व काव्य दृष्टि रचते दिखायी देते हैं। काव्य की जिस ज़मीन को तोड़ते हैं वही उर्वरक हो उठती है। शब्द और भाषा उनके इशारों पर अपनी बिसात बिछा देती है और पाठक मंत्रमुग्ध, अवाक्, विस्मित, विह्वल, आह्लादित रह जाता है। लहज़ा ऐसा की वह आक्रांत नहीं करता। विनोद और हास भी गंभीर विवेचनों के साथ। एक बेचैनी जो कवि को चिरपरिचत दुनिया से लेकर नये लोगों, नयी चीज़ों, नये अनुभवों के नये द्वीपों तक ले जाती है और फेंटेसी, स्वप्न, लोककथा, दन्तकथाओं और इतिहास तक की आवाजाही को अनिवार्य बनाये हुए है। यहां वह विस्थापन भी है जो उन्हें मथती रही है आदमी के आग पर चलने के करिश्मे तक पर विश्वास। वे कविता में झूठ और सच का भेद मिटा देते हैं बल्कि वे लोकोक्तियों तक पर यक़ीन कर कविता को विशेष अर्थ देते हैं और उसकी प्रयोजनशीलता को सिद्ध करते हैं। केदार जी की इन कविताओं में विचार दर्शन में तब्दील हो गये हैं। वर्तमान इतिहास से ऐसे घुलमिल गया है कि सब कुछ कालातीत हो गया है।
लगभग पिछले हर संग्रह की तरह उनकी पहली कविता संग्रह की उनकी कविताओं की भूमिका या संकल्प है। यूं यह किसी भी कवि के कर्म के सम्बंध में उतना ही सही है। इसमें वे कहते हैं-
'मेरे निर्माता का आदेश है
देखो और बोलो
बोलो और टंगे रहो
और देखिए न मेरी मुस्तैदी
कि मैं सबकी ओर से बोलता हूं
और बोलता हूं अपने भीतर की सारी सच्चाई के साथ
पर मेरे नेक निर्माता ने
मुझे दी नहीं अनुमति
कि कभी बोल सकूं अपनी तरफ़ से।' (सिंह, केदारनाथ, ताल्सताय और साइकिल, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2005, आईना, पृष्ठ 8)
'मुझे नहीं दी अनुमति
कि बोल सकूं अपनी तरफ़ से' पंक्तियों में वे कवि-कर्म को सामाजिक जिम्मेदारी मानते हैं जहां निहायत व्यक्तिगत के लिए स्थान नहीं है। और इस संग्रह में वे सबकी ओर से बोलते भी नज़र आते हैं। अपनी रचनाशीलता के प्रति भी कहीं-कहीं वे संशय से भरे नज़र आते हैं, और विनम्र लहजे़ के चलये यहां तक कह डालते हैं-
'पूरी कर रहा हूं वह कविता
जिसे लिखना शुरू किया था किसी पुरखे कवि ने
शायद सदियों पहले
और देकता हूं कि नीमअंधेरे में
मैंने यही तो किया है
कि हटा दिया है कोई हलन्त्
लगा दी है कहीं बिन्दी
उलट दिया है कोई विशेषण
उड़ा दी है कोई तिथि
और तुर्रा यह-
कि मैंने कविता की है!' (वही, अपनी ख़बर, पृष्ठ 42)
अपने कवि कर्म पर 'एक ज़रूरी चिट्ठी कविता का मसौदा' कविता में वे लिखते हैं। यहां चिट्ठी के बहाने कविता पर उन्होंने बात की है-
'लिखूंगा
एक न एक दिन ज़रूर लिखूंगा
वह एक ज़रूरी चिट्ठी जो मुझे लिखनी है
पृथ्वी के सारे निवासियों के नाम
xxxxxxx
एक -एक गंध
एक-एक स्पर्श को लिखूंगा
xxxxxxx
एक-एक धड़कन
एक-एक सांस को लिखूंगा
एक न एक दिन ज़रूरी लिखूंगा।' (वही, एक ज़रूरी चिट्ठी कविता का मसौदा, पृष्ठ 80/81)
उनका काव्य-विकास जनोन्मुख है। यह इस काव्य संग्रह में दिखायी देता है-
'अब जाओ में कविताओ
सामना करो तुम दुनिया का
यदि बजता है तो सिर्फ वहीं
यह इकतारा निरगुनिया का
जाओ खोजो, यदि कहीं ज़रा
सी राख पड़ी हो ढाबे में
खोजना वहीं फिर लय अपनी
गलियों के शोर-शराबे में
बिखरें होंगे सब छन्द वहां
सब तुकें वहां लुढ़की होंगी
जो छूट गयी थी पंक्ति, कहीं
कचरे पर वहीं पड़ी होगी।'( सिंह, केदारनाथ, ताल्सताय और साइकिल, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2005, मोड़ पर विदाई, पृष्ठ 136)
पुस्तक की शीर्षक कविता 'ताल्सताय और साइकिल' में वे ताल्सताय की रचना की ताक़त की चर्चा करते हुए कहते हैं-
'और तालस्ताय चूंकि तालस्ताय थे
इसलिए वे एक उदास घोड़े से
कर सकते थे बातें
कर सकते थे कोशिश एक रंगीन चित्र को
कागज़ से उठाकर
जेब में रखने की
दे सकते थे आदेश समुद्र की लहरों को
एक अभय मुद्रा में हाथ उठाकर।' (ताल्सताय और साइकिल, पृष्ठ 68)
कहना ग़लत न होगा कि स्वयं इस संग्रह में और कतिपय अन्य संग्रहों में भी केदार जी भी यही करते हैं। दरअसल वे रचनात्मकता की शक्ति को जांच परख रहे हैं और आश्वस्त भी होना चाहते हैं कि वैसा जादू उनमें जगा है कि नहीं। वे इस संग्रह में उसी जादू को जगाने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि वे मानते हैं कि-
'आपकी गली से गुज़रती हुई
एक जर्जर साइकिल की छोटी सी घंटी में
वही जादू है
जो उस दिन था जब ताल्सताल ने पहले-पहले
देखी थी साइकिल।' (ताल्सताय और साइकिल, पृष्ठ 68)
जिस प्रकार ताल्सताय ने पहली बार साइकिल देखी थी और उसकी घंटी जिस प्रकार उन पर जादू किया था केदार जी भी यहां वही दृष्टि विकसित कर पाने में सफल रहे हैं कि ऐसी मामूली वस्तुओं के जादू को पहचान सकें और उस जादू को पाठक को भी दिखा सकें। वे तालस्ताय के साइकिल वाले जादू को इतिहास से बाहर निकालने का प्रयास इस संग्रह में करते हैं। पानी की प्रार्थना, त्रिनीदाद, घोंसलों का इतिहास, पिता के जाने पर जैसी कविताएं में वह जादू सिर चढ़कर बोलता है।
संग्रह की कविता 'घोंषलों का इतिहास' में वे मशीनीकरण और संवेदनहीनता का विकल्प रचते हैं-
'यह सही है कि बाज़ार में मिलते नहीं घोंसले
वहां सिर्फ़ पिंजड़े मिलते हैं
इसलिए टूट जाने के बाद उन्हें हर बार बनाना पड़ता है नये सिरे से
उतने ही धीरज
और उससे भी ज़्यादा जोख़िम के साथ।' (वही, घोंषलों का इतिहास, पृष्ठ 23)
'पिता के जाने पर' कविता उन तमाम लोगों को अपने बुजुर्ग की याद दिलायेगी जो उनकी गतिविधियों और स्थिति के बारे में तनिक भी सोचते हैं। वरिष्ठ नागरिकों के प्रति सम्मान व आत्मीयता से भरी इस कविता में उनके निज़ी बिम्ब भी हैं। निछक निजता सार्वजनिक भी होती है इसका यह कविता श्रेष्ठ प्रमाण है-
'एक पक्षी से बतियाते हुए पिता को टोकना
सुन्दरता के ख़िलाफ़ है
और इसलिए इस घूमती हुई पृथ्वी की गति के ख़िलाफ़ भी।' (सिंह, केदारनाथ, ताल्सताय और साइकिल, पिता के जाने पर, पृष्ठ 35) केदार जी ने यहां गति को सौन्दर्य से जोड़ा है। और स्वयं केदार जी की कविता में भी गति है जो उसे दिनों दिन और मोहक व सम्मोहक बनाती चली गयी है। 'पोलिश कथाकार ब्रुनो शुल्त्ज के विलक्षण उपन्यास स्ट्रीट आफ क्रोकोडायल्स में बूढ़ा होता पिता चिड़ियों से बातें करता रहता है। स्वयं में निमग्न। एक अन्य काल और लोक में धीरे-धीरे गुम होता हुआ।xxxxxxxxयह कितना आश्चर्यजनक है। इस सदी के एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास की कविता में आवृत्ति।' (प्रकाश, उदय, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 44/45)
उपर्युक्त कविता का अन्त एक तनाव और अन्तर्द्वंद्व से होता है, जो कविता के फलक को विस्तृत और अर्थ को असीम कर देता है। मृत्यु को लेकर भारतीय परम्परा और रीति रिवाज़ भी इसके अवयव बने हैं-
'सबसे तीखा अनुभव मुझे
उस समय हुआ
जब मैंने उन्हें मुखाग्नि दी
वही मुख जिसने मुझे चूमा था बार-बार
जला दिया था मैंने उसे
शास्त्र का आदेश था
और मेरे भीतर का संशय
दोनों मिलकर मंत्र पढ़ते रहे।' (सिंह, केदारनाथ, ताल्सताय और साइकिल, पिता के जाने पर, पृष्ठ 35)
इस कविता में मनुष्य के स्वभाव व स्थिति, मनुष्य के विकास और क्षरण की गतिविधियों को बारीकी से महसूस किया है और उस रहस्यमयता को भी रेखांकित किया है जिसे कोई चाहे तो आसानी से महसूस कर ले, विज्ञान जिसकी अपनी तरीके़ से व्याख्या करेगा किन्तु कविता में तो यह काम केदार जी जैसे समर्थ कवि ही कर सकते हैं-
'यह क्या होता है आदमी के भीतर
कि उसकी चमड़ी के झूलते चले जाने के साथ-साथ
शब्दों में बढ़ने लगता है अर्थ की चमक
और होठों की पपड़ियों से
छनकर आता है जाने वह क्या कुछ
एक शिशु के पहले स्तनपान की महक जैसा। '(वही, पृष्ठ 34 )
'आग पर चलने का करिश्मा' कविता में वे तर्कों के परे जाने पर संकोच नहीं करते और इसके लिए उनके पास पर्याप्त वज़हें हैं। वे वज़हें, जिनसे मनुष्यता पर आस्था बढ़ती है-
'मैं अपने पूरे वज़ूद से
आदमी के आग पर चलने के करिश्मे पर
विश्वास करना चाहता हूं।' (वही, आग पर चलने का करिश्मा, पृष्ठ 45)
'प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक अंर्स्ट फिशर का विश्लेषण, जिसमें उन्होंने मनुष्यता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में कला में अन्तर्व्याप्त इस रहस्य-तत्व के औचित्य और अनिवार्यता को रेखांकित किया है।' xxxxxxx 'जादू का वह अंश हम सबमें बचा रह गया है। मगर केदारनाथ सिंह जैसे किसी बड़े और समर्थ कवि के पास ही अपनी ज़मीन और इतिहास के विशाल कैनवस पर उसे चरितार्थ करने की कलात्मक अंतर्दृष्टि होती है। हम उसका व्याख्या न करें, पर उससे प्यार तो कर ही सकते हैं। वह क्या है; इस प्रश्नाकुलता और खोज में ही उसके होने का सौन्दर्य है।'(चतुर्वेदी, पंकज,, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 155)
परम्परा, मिथ और आस्था को मनुष्य के लिए वे बहुमूल्य मानते हैं और आधुनिकता को धता बताते हुए वे मासूमियत से कहते हैं 'दांत' कविता में-
'कहती थीं दादी
टूटे हुए दांत को गाड़ देना चाहिए
किसी नाली के किनारे की
घास की जड़ में
वह फिर से उग जायेगा
मैंने दादी का स्मरण किया
जैसे चांद में बैठी हुई-
बुढ़िया का स्मरण
और दांत को गाड़ दिया
एक घास की जड़ मे
जानता हूं वह कभी नहीं उगेगा
xxxxxxxx
फिर भी पांचवें-सातवें
जब उधर से गुज़रता हूं
एक बार झांककर ज़रूर देख लेता हूं
कि कहीं मेरा दांत उग तो नहीं रहा।' (वही, दांत, पृष्ठ 78) यहां वे लोक प्रचलित अवधारणाओं को पूरा सम्मान देते हुए उसके कहे पर विश्वास करते हैं वैसा ही जैसा मनुष्य के आग पर चलने के करिश्मे पर। सारे मूल्य तर्क के निर्धारित नहीं होते। ऐसा पृथ्वी पर बहुत कुछ है तर्कातीत है और मूल्यवान, केदार जी उन्हीं की शिनाख़्त करते-करवाते हैं।
केदार जी केवल मनुष्यकेन्द्रित सभ्यता के एकांकी विकास हिमायती कभी नहीं रहे। वे साहचर्य को महत्त्व देते हैं और पूरी प्रकृति को इस यात्रा का सहभागी बनाने के पक्षधर हैं। संसार की हर हलचल की यात्रा उनकी रचनाशीलता का अनिवार्य अंग रही है। उनकी कविताओं में निर्जिव वस्तुओं में जान है और उनके क्रियाकलाप भी। ऐसे में दांत के उग आने की कल्पना उनकी कविता के स्वभाव के अनुरूप ही है। और यही सब वज़हें हैं जो उनके सरोकारों को बड़ा बनाते हैं। और सह अस्तित्व और सह अस्मिता के प्रश्न उनके यहां विविध रूपों में सामने आये हैं। ऐसी एक कविता है ठीकरा। इस कविता में कवि खेत के बीचोबीच पड़े ठीकरे को लेकर चिन्तित है। जब कवि बाल्यावस्था में था तो देखता था कि पिता खेत में पड़े ठीकरों को उठाकर बाहर फेंक देते थे, उसे यह अप्रिय लगता था और वह उनकी आंख बचाकर ठीकरे को फिर खेत में रख देता था। और जबकि पिता नहीं रहे और वह बड़ा हो चुका है तो वह स्वयं ठीकरे को खेत से बाहर फेंकना चाहता है तो उसके अन्दर का पुराना बच्चा उसे रोकता है-
'मेरे हाथ से गिर पड़ता है ठीकरा
झुकता हूं
और उसे उठा लेता हूं दुबारा
पर फेंक नहीं पाता
रख देता हूं वहीं
जहां पड़ा था वह
मुझे लगता है-अब प्रसन्न है ठीकरा
और दमक रहा है धूप में
क्या यह मेरा खेत है?
रास्ते भर ख़ुद से उलझता रहा मैं
एक छोटे से ठीकरे ने
मुझे संशय में डाल दिया था। (वही, ठीकरा, पृष्ठ 133)
कवि के संशय में पड़ने का आशय ही है कि कवि को यह भी लगता है कि ठीकरे का खेत पर हक़ है। वे ठीकरे के विस्थापन के ख़िलाफ़ हैं। यूं भी विस्थापन उनकी कविता का एक महत्त्वपूर्ण पहलू सदैव रहा है और इस संग्रह में भी वे विस्थापन की पीड़ा को शिद्दत से उठाते हैं। यह बात दीगर है कि वे आत्म विस्थापन से उबर चुके हैं और जहां कहीं भी जिस किसी स्तर पर विस्थापन हो रहा हो या जो विस्थापित हो उसके दर्द को पूरी शिद्दत से अभिव्यक्त करते हैं चाहे वह त्रिनीदाद में रह रहे लोगों को विस्थापन हो जो भारत से वहां गये और फिर लौट नहीं आये, जो यह तक भूल चुके हैं कि उनकी मूल जन्म स्थान कहां है और जयपुर बिहार में नहीं राजस्थान में है। उनके दिमाग में अपने मूल स्थान के सम्बंध में अपने पूर्वजों से सुना नक्शा है, जो गड्मगड्ड है-
'क्या वे स्मृति-हीन लोग है?
अपनी बगलवाले आदमी की गहरी उदास कैरेबिनय आंखों में
झांकते हुए मैंने सोचा
मुझे लगा-वहां बिहार के
किसी सूने कछार की ज़रा-सी नमी
कहीं अब भी बची थी
और एक अजब-सी खनक थी उसकी आवाज़ में
बल्कि एक मूर्छना
किसी भूली हुई सुदूर भोजपुरिया धुन की
जिसे उस पूरी भीड़ में मैं
और सिर्फ़ मैं सुन रहा था
उसने बताया उसके पुरखे उदयपुर से थे
जो कहीं बिहार में है' (वही, त्रिनीदाद, पृष्ठ 14/15)
केदार जी विस्थापन और स्मृति से गहराई से जोड़ते दिखायी देते हैं। इस संग्रह में स्मृतियों पर उन्होंने विशेष जोर दिया है और भूलने को मनुष्यता के विकास के लिए अशुभ मानते हैं। भूलने की प्रवृत्ति से वे बेचैन हैं-
'भूलता तो मैं भी जा रहा हूं
कुछ न कुछ रोज़-रोज़
और जो भूलता जा रहा हूं
वह महज़ नीम की पत्तियां
और महुए की टपक नहीं
xxxxxxx
तो क्या मैं भी डायस्फोरा हूं?
कहीं अपने समय के किसी त्रिनीदाद में
एक अजब आप्रवासी।'(वही, त्रिनीदाद, पृष्ठ 16)
भूलने पर एक और कविता है 'झरबेरियां'-
'यही होता है हर बार
हम उन्हें भूल चुके होते हैं पूरी तरह
कि एक दिन अचानक झोंप की झोंप
दिख जाती हैं वे कंटीली झाड़ियों में
और एक गहरी आश्वस्ति में
हम झूका देते हैं सिर
कि चलो अच्छा है
झरबेरियां अब भी होती हैं पृथ्वी पर
फिर धीरे-धीरे
हम उन्हें भूल जाते हैं दुबारा
xxxxxxxxxxxxx
यह भूला हुआ सच परेशान करता है मुझे
कि ये वही झरबेरियां हैं
जिन्हें शायद सभ्यता के पहले दिन ही
सूची से काटकर फेंक दिया गया था बाहर। ' (वही, झरबेरियां, पृष्ठ 57/58)
यहां भी भूलने को विस्थापन के दंश से जोड़कर उन्होंने देखा है।
विस्थापन के अर्थ का वे यहां तक विस्तार कर चुके हैं। जिस इब्राहिम मियां ऊंटवाले की पहचान ही ऊंट हा चला था और उनका चेहरा याद आने से पहले किसी को उनका ऊंट याद आ जाता है जब अरसे बाद कवि उन्हें खोजते एक बस्ती में पहुंचता है तो पाता है कि इब्राहिम मियां की वह विशिष्ट पहचान खो चुकी है-
'उस छोटी-सी बस्ती के उस ओसारे के सामने
जहां सबसे पहले एक मेमना मिला
जो इस कठिन समय में भी
उछल रहा था बाहर
फिर एक बकरी मिली
जो ठीक वहीं बंधी थी
जहां कभी खड़ा रहता था ऊंट
अन्त में इब्राहिम मियां मिले
ऊंट बकरी में कैसे बदल गया?
पूछना चाहता था मैं
पर मैंने खुद को रोका।' (वही, इब्राहिम मियां ऊंटवाले, पृष्ठ 65) कवि के लिए यह मर्माहत और स्तम्भित करने वाली घटना है। इसमें वे उसका विस्थापन महसूस करते हैं।
विस्थापन की स्थितियां सिर्फ़ शहर में हों ऐसा नहीं है गांव में भी हैं। 'भुतहा बाग' कविता में वे बावड़ी, झुरमुट व छतनार पेड़ों के विस्थापन की स्थितियों की चर्चा करते हैं। इसमें उन्होंने उन लोकमान्यताओं की उजले पक्ष को प्रकट किया है जो अंधविश्वासों से जुड़ी हुई थीं किन्तु उनमें लोकमंगल था-गांव के बदले परिवेश में प्रकृति के विस्थापन को वे व्यक्त करते हैं-
'अब रहा नहीं बस्ती में कोई सुनसान
कोई सन्नाटा
यहां तक कि नदी के किनारे का
वह वीरान पीपल भी कट चुका है कब का
सोचता हूं-जब होते थे भूत
तो कम से कम इतना तो करते थे
कि बचाए रखते ते हमारे लिए
कहीं कोई बावड़ी, कहीं कोई झुरमुट,
कहीं निपट निरल्ले में
एकदम अकेला कोई पेड़ छतनार।' (वही, भुतहा बाग, पृष्ठ 120)
यहां तक कि वे दिल्ली में भी बबूल के पेड़ की उपस्थिति को महत्त्वपूर्ण मानते हैं-
'हर बाज़ार में होना ही चाहिए कांटों से लदा
एक बबूल का पेड़
बाज़ार के स्वास्थ्य के लिए।' (वही, दिल्ली में बबूल, पृष्ठ 126)
वे बबूल जैसे वृक्षों के प्रति उनका लगाव हमेशा से रहा है। और दिल्ली जैसे महानगर में उसे देखकर उन्हें हार्दिक प्रसन्नता भी होती है-बबूल है-
'मैंने पहचाना
जैसे भीड़ में कोई बचपन के मित्र को पहचान ले।' (वही, दिल्ली में बबूल, पृष्ठ 125) और वे उसकी उदासी दूर करने के बारे में सोचने लगते हैं। 'वे मनुष्येतर जीवन-सृष्टि में मनुष्यों, प्रकृति के दृश्यों में विभिन्न वस्तुओं और मनुष्यों में प्रकृति के सक्रिय अवयवों के ऐसे मनोहारी सादृश्य खोज लेते हैं कि उन पर ठिठकने, उनस सम्मोहित होने और उनके सम्बंध में सोचने के सिवा और कोई चारा नहीं रहता। वे ऋतुओं, फसलों और उनमें साथ निभाने वाले जानवरों के मिज़ाज़ और तकलीफ़ों को पहचानते हैं, उनसे वाबस्ता हैं।' (चतुर्वेदी, पंकज, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ136/138)
यहां यह उल्लेखनीय है कि जिनके सरोकार बड़े हों कोई ज़रूरी नहीं कि उसकी भंगिमा में ललकार और बढ़चढ़ कर दावे हों। वे विनम्र भी हो सकते हैं। केदार जी की कविता का मुहावरा और लहज़ा व विनम्र और आत्मीयता की मिठास भरा है, जिसमें एक बड़ा अंश करुणा का है। यह अनायास नहीं है कि उनके लगभग हर काव्य संग्रह में गौतम बुद्ध पर कविता रहती है। गौतम बुद्ध का मूल संदेश करुणा ही है। वे बुद्ध से लेकर कबीर तक की यात्रा करते दिखायी देते हैं। बुद्ध सी करुणा और कबीर सी आक्रामकता दोनों मिल जुल कर उनकी काव्य-संवेदना को एक नयी त्वरा प्रदान करते हैं। बुद्ध के संदर्भ में उन्हें पोकरण में किया गया परमाणु परीक्षण भी याद आता है जिसका नाम रखा गया-बुद्ध की मुस्कान। नाम के विरोधाभास को वे व्यक्त करते हैं-
'मेरी समस्या यह है
कि वह कौन-सा नियम है भाषा का
जिससे पोकरण में होने वाला बम-विस्फोट
चुपके से बन गया था बुद्ध की मुस्कान। (वही, बुद्ध की मुस्कान, पृष्ठ 83)
पोकरण के हुए विस्फोट को बुद्ध की मुस्कान नाम देने को वे भाषा का ध्वंस करार देते हैं।
'बारिश में स्त्री' कविता में वे बेलाग लपेट कहने का साहस और बयान मं पारदर्शिता ला पाये हैं। स्त्री पर किसी हद तक चुप-चुप रहने वाले केदार जी की कविता की यह नयी कौंध है। वह कौंध जो पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं पर लिखते हुए पैदा होती रही है किन्तु स्त्री के बारे में वे वैसा अब कर पाये हैं-
'छाता नहीं था उसके पास
मेरे पास होने का सवाल ही नहीं था
सो भींगते रहे हम
भींगते हुए वह
एक क़िताब की तरह खुली थी
जिसके अक्षर पूरी तरह धुल-पुंछ गये थे
और खुशख़त बारिश मानो नये सिरे से
उसके वक्ष पर
कंधों पर
ठुड्डी पर
बालों पर लिखे जा रही थी
कोई तरल इबारत
जिसे पढ़ रही थी-मेरी आंखें
और सुन रहे थे मेरे कान
पानी के इतिहास का वह दुर्लभ क्षण था
जब मेरी आंखों के आगे
एक नयी वर्णमाला का जन्म हो रहा था।' (वही, बारिश में स्त्री, पृष्ठ 86)
मैं इस पर ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि यह केदार जी कविता में भी नयी वर्णमाला का जन्म है। पानी ने पहले घर में तो अपने घोंसले बनाये थे किन्तु उनका स्थान स्त्री के वक्ष, कंधों और ठुड्डी पर नहीं था। स्त्री का जो रूप उनकी आरम्भिक कविताओं में था वह ग्रामीण व पारिवारिक स्त्री का था। यह साथ-साथ उन्मुक्त भीगने वाली स्त्री नहीं थी।
आज जो लोग कविताओं की दुनिया से उदासीन हो चले हैं कि उन्हें अब ऐसी कविताएं पढ़ने को नहीं मिलतीं जिन्हें पढ़कर संतोष मिले उन्हें यह पुस्तक आश्वस्त करती है कि अब भी पढ़ने लायक काफी कुछ लिखा जा रहा है। जहां यह कोशिश जारी है कि-
'मैं तो बस इस शहर की
लाखोंलाख चींटिंयों की मूक रुलाई का
हिन्दी में अनुवाद करना चाहता हूं।' ( वही,चींटियों की रुलाई, पृष्ठ 91)
जहां व्यष्टि और समष्टि के बीच करुणा का एक आत्मीय सम्बंध है-
'हैरान था मैं कि मेरे हिलने
और सूअर की कराह के बीच
कोई पुल नहीं था।' (वही, एक पशु की कराह, पृष्ठ 99)
जो लोग वैज्ञानिक सोच और तार्किकता से लैस हैं उन्हें यह कविता झटका भी देती है और उसे कविता के लिए लगभग गैर ज़रूरी साबित कर देती है। कला की दुनिया में विचार से अधिक भावना और संवेदना अहम रही है उसका यह संग्रह भी प्रमाण है।
इस संग्रह में बहुत गहरे अर्थों में राजनीतिक रुझान की कविताएं भी हैं। स्मारक, चींटियों की रुलाई, इराक युद्ध में एक घायल बच्चे को टीवी पर देखकर, रात की आवाज़ें, बुद्ध से आदि कविताओं की भूमि राजनीतिक है। 'बर्लिन की टूटी दीवार को देखकर' अद्भुत कविता। बातचीत के सबसे आत्मीय शिल्प में। कविता बर्लिन में शुरू होती है लेकिन उसकी आत्मा भारतीय उपमहाद्वीप है। यह अकारण नहीं है कि कविता में अहमद फराज़ अपनी ग़ज़ल का एक मिसरा भूल जाते हैं। ( मिट्टी की रोशनी, सम्पादक-त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली, 2007, 158, 159)
इस पर केदार जी की टिप्पणी है-
'ग़ज़लों से भर इस उपमहाद्वीप में
मुझे एक भूले हुए मिसरे का अब भी इन्तज़ार है।' (वही, बर्लिन की टूटी दीवार को देखकर, पृष्ठ 48)
वे अहमद फराज़ के शेर के बहाने भारत-पाक मैत्री की कामयाब़ी का ख़्वाब देखते हैं। आज़ादी की स्वर्णजयंती कविता में देश में आज़ादी की स्थित पर असंतोष व्यक्त करते हैं।
केदार जी बाज़ार को लेकर बेहद चौकन्ने कवि हैं और उसके प्रति गंभीर भी। आदमी और बाज़ार के रिश्ते को लगभग हर संग्रह में वे युगीन संदर्भों में व्याख्यायित करते चले गये हैं। अपनी खबर कविता में वे लिखते हैं-
'कविता और बाज़ार की एक हल्की-सी टक्कर
रोमांचित करती है मुझे।' (वही ,अपनी ख़बर, पृष्ठ 39)
जितेन्द्र श्रीवास्तव को इस संदर्भ में मिर्जा ग़ालिब की याद आती है। उनका कहना है 'बाज़ार को लेकर जो विडम्बनाबोध ग़ालिब के वहां है, वह डेढ़ सौ साल बाद और अधिक तीक्ष्णता के साथ केदार जी के यहां देखने को मिलता है।' xxxxx 'बाज़ार आज के विश्व का यथार्थ बन चुका है। उससे मुंह मोड़ना संभव नहीं दिखता। दो-दो हाथ तो करना ही होगा। यह सकारण है कि केदारजी की कविताओं में बाज़ार बार-बार आता है क्योंकि वह मनुष्य के हर पल उपस्थित रह रहा है।' (श्रीवास्तव, जितेन्द्र, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक-त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ 157/159)
बाज़ार पर केदार जी ने एक दोहा भी लिखा है, जिसमें बाज़ारोन्मुख व्यवस्था को उन्होंने रेखांकित किया है-
'कलम छोड़ दो मेज़ पर, कागज़ रख दो द्वार
सारी दुनिया जा रही, कवि जी चलो बज़ार।' (सिंह, केदारनाथ, ताल्सताय और साइकिल, तीन दोहे, पृष्ठ 100)
वे मनुष्येतर जीवन-सृष्टि में मनुष्यों, प्रकृति के दृश्यों में विभिन्न वस्तुओं और मनुष्यों में प्रकृति के सक्रिय अवयवों के ऐसे मनोहारी सादृश्य खोज लेते हैं कि उन पर ठिठकने, उनस सम्मोहित होने और उनके सम्बंध में सोचने के सिवा और कोई चारा नहीं रहता। वे ऋतुओं, फसलों और उनमें साथ निभाने वाले जानवरों के मिज़ाज़ और तकलीफ़ों को पहचानते हैं, उनसे वाबस्ता हैं। (चतुर्वेदी, पंकज, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ136/138)
'परस्पर विरोधी स्थितियों, अनुभूतियों, विचारों और घटनाओं के संघात से वे कविता में जबरदस्त तनाव, संतुलन और एक किस्म का तार्किक सम्मोहन पैदा करते हैं।xxxकविता और धर्म के बीच का विलक्षण तनाव उनकी इन पंक्तियों में बहुत सघन रूप में व्यक्त हुआ है-
'वह कमबख़्त कविता कुछ चीज़ ही ऐसी है
कि चुप है तो चुप है
वरना प्रार्थना के बीच में भी
शुरू कर देगी चिल्लाना' (चतुर्वेदी, पंकज, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक-त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ 152)
'यह कितना सुखद और विस्मयकारी है कि तरह-तरह के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदियां और सूरज ही नहीं पत्थरों से भी बातचीत उनके यहां संभव है। इससे कविता की आत्मा के विशाल होने का साक्ष्य तो है ही, इससे अपने समय के बारे में भी विरल अंतर्दृष्टि हासिल होती है। ज़ाहिर है कि यह प्यार बहुत विवेकपूर्ण, सजग और आधुनिक है। उसमें आलोचना का साहस है। इसलिए वह मनुष्य-सम्बंधों में आ रहे बदलाव की सही शिनाख़्त कर पाता है। (चतुर्वेदी, पंकज, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक-त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली, 2007, 136)
इसका उदाहरण पत्थर और अपनी खबर जैसी कविताओं में मिलेगी। पत्थर में कविता में वे पत्थरों को आदमी की तुलना में अधिक संवेदनशील पाते हैं। आदमी के सम्बंध शुष्क होते चले गये हैं। जिसकी ओर वे ध्यान खींचना चाहते हैं। 'अपनी ख़बर में' वे अपने भीतर घटित होती प्रक्रिया की चर्चा करते हुए कहते हैं, जो मनुष्य मात्र के लिए भी है, बस उसे याद दिलाने की आवश्यकता है-
'सच्चाई यह है
कि अपनी त्वचाके भीतर
में आज भी इतना वानस्पतिक हूं
कि जब भी मेरे माथे पर
गिरती है ओस
मेरे भीतर कुछ हो जाता है बेचैन
उससे बात करने के लिए।' (ताल्सताय और साइकिल, अपनी ख़बर, पृष्ठ 41)
इस संग्रह में स्मृतियों के प्रति रुझान हमारा ध्यान बार-बार आकृष्ट करता है। 'स्मृतियों को आधार अनेक कवि बनाते हैं। नॉस्टेल्जिक, स्मृतिजीवी, आत्म-मुग्ध समकालीन चिरकुट भोले प्रेत भी लेकिन किसी भी स्मृति में अपनी, उस सुदूर काल की ऐन्द्रिक संवेदना को, उसी चाक्षुषता, गन्ध, ध्वनियों और भ्रांतियों की सम्पूर्ण आवेगात्मक समग्रता में पुनर्रचित कर पाना हर किसी के वश में नहीं होता। यहां तो देह की समस्त कोशिकाएं जैसे अपनी स्मृति की पुनर्रचना में संलिप्त हो जाती हैं।' (प्रकाश, उदय मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 43) केदार की के यहां स्मृतियों का आधार और स्वरूप भिन्न है। उनकी स्मृति का स्वरूप सामूहिक भी है और निज़ी भी। सबका अपना-अपना भी और सबका साझा भी। इस सामूहिक स्मृति के स्वर को व्यक्त करने के तरीके को समूहगायन कविता में उन्होंने यूं व्यक्त किया है-
'उस गाने में
कोई भी आवाज़
किसी भी आवाज़ से अलग नहीं थी
पर हर गानेवाला
जितना समूह में था
उतना ही अकेला'
(वही, समूहगायन, पृष्ठ 49)
इस दौर की उनकी कविताओं में कौन बसा है इसकी झलक दिनचर्या इन दिनों में देखी जा सकती है-
कुछ ऐसा है कि जब सड़क पर चलता हूं
लगता है पूरे इतिहास में चल रहा हूं
डाकघर जाता हूं और जान पड़ता है
वृहत्कथा के किसी जंगल में आ गया हूं
किताब खोलता हूं तो दिख जाते हैं कालिदास
बंद करता हूं कापी
तो बाणभट्ट की हंसी सुनाई पड़ती है
अभी कल ही की बात है
इंडियागेट पर खड़ा था कि राष्ट्रीय संग्रहालय से एक पुरातन मृदभांड की
गंध ने मुझे आवाज़ दी
चांदनी चौक जा रहा था कि लाल किले की ओर से
एक शिल्पी के कटे हुए हाथ ने मुझे पुकारा
उतर रहा था आश्रम की पुलिया से नीचे
कि नीम की झरती हुई पत्तियों की फांक से
मुझे दिख गये अब्दुर्रहीम खानखाना
उनकी वह अनसुनी कराह
मुझे सुनाई पड़ती रही रातभर नींद में। (वही, पृष्ठ 52)
यह सामूहिक स्मृतियों के प्रति उनकी गहरी दिलचस्पी और उन्हें कविता और भाषा के ज़रिये पुनर्जीवित करने की प्रतिबद्धता है कि उन्होंने पांडुलिपियां, तू फू और ली पै, घोंसलों का इतिहास, पूस की रात: पुनश्च और जब मैं मिलारेपा को पढ़ रहा था जैसी कविताएं लिखीं है। ये कविताएं किसी न किसी स्तर पर हमें अपनी सामूहिक स्मृतियों के क़रीब ले जाती हैं उनकी दिव्यता, प्रासंगिकता, सामूहिकता और उसकी विडम्बनाओं से हमारा साबका कराती हैं और वे इस क्रम में अपने शब्दों, लहज़े, भंगिमा और संवादशीलता के कारण उन्हें पुनर्जीवित करती हैं-
'क्योंकि तब हर देवदार
मेरे घर का दरवाज़ा था
और हर नदी मेरा भूला हुआ रास्ता
वे दुख की खुली हुई आंखें थीं दो
जो हर अक्षर में थीं
और सोई नहीं थीं बरसों से
और लगता था शब्दों की ओट में
कहीं अभी-अभी जन्मा एक भेड़ का बच्चा है
जो सिर्फ़ अपने खड़े होने भर से
बचा सकता है दुनिया को।' (वही, जब मैं मिलारेपा को पढ़ रहा था, पृष्ठ 123) यह अनुभूति केदार जी को तब होती है जब वे मिलारेपा को पढ़ रहे थे। हमें भी वही एहसास केदार जी की कविता को पढ़ते हुए होता है कि उनकी कविता में कहीं कुछ है जिसके खड़े होने भर से बच जायेगी दुनिया।
केदार जी वास्तविक लगते से संसार से सहसा हमें एक अवास्तविक संसार में ले जाते हैं जहां अर्थ की नयी तहें खुलती हैं। एक ही घटना में कई बार सदियों के फासले मिट जाते है और हम विभ्रम की स्थिति में अपने को पाते हैं। एक जादुई खेल उनकी कविता में लगातार ज़ारी रहता है, जो उनकी कविताओं में आरम्भ से ही था जो महज बिम्बों के सृजन के लिए नहीं था बल्कि वे कविता के उस आशय तक ले जाने के लिए ऐसा करते हैं जो उस कविता की परिणति हो सकती है। यूं भी 'रचना का संसार प्रचलित अर्थ में वास्तविक नहीं होता। कोई भी बड़ी रचना स्थूल अर्थ में वास्तव में वास्तव के संसार की व्याख्या नहीं करती, न सिर्फ़ इसी व्याख्या के आधार पर अपने होने का प्रमाण और वैधता चाहती है। अगर वह वास्तव में जगत से कोई संदर्भ लेती भी है, तो सिर्फ़ अपनी अस्पष्टता को स्पष्ट करने के लिए। हालांकि उसी के माध्यम से हम वास्तविकता का संज्ञान हासिल करते हैं जो हमें सिर्फ़ रचना से ही प्राप्त हो सकता है।'(प्रकाश, उदय मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 43)
तू फू और ली पै कविता में केदार जी स्वयं कहते हैं-
'यह आठवीं सदी की कोई शाम रही होगी
यद्यपि इतिहास में इसका कोई ज़िक्र नहीं है।
' कवि यह भली भांति जानता है कि जिस घटना का वह ज़िक्र कर रहा है वह वास्तव में इतिहास में घटित नहीं भी हो सकती किन्तु झूठ और कल्पना भी इतिहास से बड़ी घटना हो सकती है कई बार वह इतिहास को चुनौती दे सकती और कई बार वह इतिहास न होते हुए भी इतिहास ही होती है। ऐसी एक रचना है कथाकार प्रेमचंद की कहानी पूस की रात। यह कहानी वास्तविक इतिहास न होकर भी भारतीय कृषक समाज का सबसे विश्वस्त इतिहास है। यह अनायास नहीं है कि केदार जी उसे ऐतिहासिक घटना मानकर भी उसका पुनर्सृजन करते हैं। कृति में उसकी संवेदना के मूल भाव से छेड़छाड़ किये बिना भी वे उसकी संवेदनशीलता और बढ़ा देते हैं। यह पुनर्सृजन वे उन प्राणियों के लिए करते हैं जिनकी संवेदना मनुष्य की संवेदना के आगे लगभग गौड़ हो गयी थी। यहां कुत्ते और नीलगायों का पक्ष उन्होंने रखा है। इससे प्रेमचंद की कहानी का स्वर महाकाव्यात्मक हो गया है। वे गंभीरता से यह सोचते हैं कि जब हलकू गया होगा बगीचे में सूखी पत्तियां बटोरने तब कुत्ता क्या कर रहा होगा। केदार जी ने कविता में कहानी रची है किन्तु यह कविता और अधिक काव्यात्मक हो जाती है। इसमें न सिर्फ़ हल्कू से किये गये खेल का वर्णन है जिसमें कुत्ता जानबूझ कर हार जाता है। केदार जी की पुनर्रचना में नीलगायों फिर से प्रवेश करती हैं और खडी़ हो जाती हैं इस बोध के साथ कि उनसे गलती हो गयी वे नहीं जानती कि उन्होंने क्या किया है। केदार जी की कविता में एकायक महाभारत कालीन पात्र प्रकट होते हैं-
'गांव वालों ने देखा
कोहरे से निकलकर एक पतली सी पगडंडी पर
युधिष्ठिर और उनकी कुत्ता
दोनों हिमालय से वापस आ रहे हैं
बर्फ़ ने
उन्हें गलाने से इनकार कर दिया है।' (वही, पूस की रात: पुनश्च, पृष्ठ 31) यहां आकर प्रेमचंद की बीसवीं सदी की कहानी महाभारत काल में प्रवेश कर जाती है और कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता।
केदार जी ने ऐसी कविताएं भी इस संग्रह में दी हैं जिनका सीधे-सीधे अर्थ निकाल पाना मुश्किल है और यह बता पाना भी मुश्किल कि उनकी कविता का अभिप्राय क्या है किन्तु उन कविताओं में एक कौंध है, एक आह्लाद, एक अनुभूति, एक अनुभव। 'शायद केदारनाथ सिंह की कविता पर जिस समकालीन कवि ने सबसे ज़्यादा लिखा है, वे हैं अरुण कमल। इसलिए उनका भी निष्कर्ष खासा दिलचस्प और प्रामाणिक है-इतना सारा कुछ लिख लेने के बाद भी लगता है कि उनकी कविताओं में कुछ ऐसा है, जिसकी व्याख्या संभव नहीं, जिसे बस अनुभव किया जा सकता है...कविता का वह राज़, जिसे सब जानें, पर किसी से कह न सकें, यही किसी भी कविता को कविता बनाता है।' (चतुर्वेदी, पंकज,, मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 154) इस प्रकार की कविताओं में खरहे, तलाश, लहरतारा, पतझड़, पानी था मैं, ईश्वर और प्याज और अमरूद आदि।
अमरूद कविता की बानगी देखें-
मैं बिना किसी मध्यस्थ के
छिलकों और बीजों के बीच से होते हुए
सीधे अमरूद के धड़कते हुए दिल तक पहुंचना चाहता हूं
जो कि उसका स्वाद है।' ( सिंह, केदानाथ, ताल्सताय और साइकिल, अमरूद, पृष्ठ 103)
केदार जी की कविताएं का सीधे आस्वादन तो किया जा सकता है लेकिन वे कैसी और क्या है यह व्यक्त करने के लिए भाषा जैसा का कोई उपकरण मध्यस्थ बने यह संभव नहीं जान पड़ता।
शायद इन्हीं कविताओं को लक्ष्य कर उदय प्रकाश ने कहा है-'केदारनाथ सिंह की कविताओं में वर्ण, पद और ध्वनियों की इस गतिकीयता या काइनेटिक्स को कुछ आलोचक उनकी कविता की ही लिरिकैलिटी या संवेग समझने की भूल कर बैठते हैं। दरअसल उनकी कविता के काइनेटिक्स की अपूर्व प्रक्रिया में, अविच्छिन्न स्फोटों के साथ जो संरचना सामने आती है, उसके विभाजन या विच्छेदन के द्वारा आप कोई फल नहीं पा सकते। भृतहरि और देरिदा ही नहीं, वोलानिसोव जैसे मार्क्सवादी विचारक भी इसीलिए वाक्य तथा वाक्यार्थ की अखंडता को सबसे पहले स्वीकार करते हैं। केदारनाथ सिंह की कविताओं के पाठ के साथ तो यह अनिवार्यता की हद तक ज़रूरी है।' (प्रकाश, उदय मिट्टी की रोशनी, सम्पादक, त्रिपाठी, अनिल, शिल्पायन, दिल्ली,2007, पृष्ठ 43)
संग्रह में उनकी दो कविताएं हैं जो उनके पुराने दिनों से सम्बंधित हैं। एक है पडरौना की याद में लिखी गयी कविता शहरदल, जहां उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का काफी अरसा गुज़ारा है दूसरा कैलाशपति निषाद की स्मृति में लिखी गयी कविता जो, उन्होंने अपने पुराने दिनों के मित्र के दिवंगत होने पर लिखी है। पडरौना को कविता में रखकर ऐतिहासिक बना दिया है और उसके स्वभाव को पूरे गरिमामय ढंग से दर्ज़ किया है इस टिप्पणी के साथ कि-
शायद दुनिया उन्हीं छोटे-छोटे शहरों के
ताप से चलती है
जिन्हें हम-आप नहीं जानते।' ( सिंह, केदानाथ, ताल्सताय और साइकिल, शहरबदल, पृष्ठ 92) सो उन्होंने पडौराना के ताप से दुनिया को परिचित कराया है। यह वही उपक्रम है ताल्सताय की साइकिल के इतिहास में प्रवेश की तरह। ताल्सताय का यास्नाया पोलियना की कच्ची सड़क पर साइकिल सीखते हुए गिरने से वह साइकिल इतिहास में प्रवेश कर गयी। केदार जी के रास्ते पडौराना के इतिहास में प्रवेश का मार्ग बनी है यह कविता।
संग्रह में नामों के अर्थ पर उन्होंने विशेष गौर किया है जिसमें एक नाम पडरौना भी है 'जिसके नाम का उच्चारण/ एक लड़की को लगता था ऊंट के कोहान की तरह।' (वही, पृष्ठ 93) एक अन्य कविता में नाम को लेकर उनका कौतुक देखें-
'बापू-यह शब्द
दो अक्षरों से मिलकर बना है
बा+पू
बा -चलो ठीक है
पर पू हमें ज़्यादा आनन्द देता है
पता नहीं क्यों?' (वही, तीन गद्यांश-एक स्कूली अभ्यास-पुस्तिका से उतारे गये, पृष्ठ112)
अपने मित्र कैलाशपति निषाद पर उन्होंने जो कवि लिखी है वह साधारण की गरिमा की स्थापना है। बुद्ध, ताल्सताय, तू फू और ली पै, कबीर, निराला, त्रिलोचन पर कविता लिखने वाले केदार जी ने जिस कैलाशपति पर कविता लिखी है 'वह निहायत साधारण, थोड़ा बहुत पढ़े हुए, शायद किसी स्कूल की छोटी कक्षा के मास्टर और बिल्कुल देहाती। कुर्ता, धोती, चप्पल पहने और सामान के नाम पर कंधे पर सिर्फ़ एक गमछा।xxxx केदार जी ने एक दिन बताया कि निषाद जी नहीं रहे। उनकी कुछ बातें भी करते रहे। निषाद जी की महागरीबी और स्वाभिमान की। कैसे वे केदार जी को अपने गांव लेकर गये थे, जहां केदार जी ने पाया कि सर्दी में भी सारा परिवार केवल आधी धोती बांधे और आधी ओढ़े सोता था। कैसे केदार जी की सहायता से उन्होंने एक छोटे से स्कूल में नौकरी पायी थी और कैसे निषाद जी की मित्रता केदार जी के पिता और केदार के साथ वर्षों तक बनी रही।' (, सिंह, के बिक्रम, साधारण की गरिमा, जनसत्ता, कोलकाता, 2 मार्च 2008, पृष्ठ 5 )
इस कविता में केदार जी ने कैलाशपति के बहाने साधरण की महानता की स्थापना की भी की है और उनके व्यक्तित्व का भावचित्र भी खींचा है-
'सिर्फ़ गमछा भी
हो सकता है आदमी की सबसे बड़ा मित्र
एक साइकिल भी उतनी ही निष्ठा
और उतने ही ताप से निभा सकती है प्रेम
वर्षों तक
एक चुप रहना भी हो सकता है
भरी सभा में सबसे तेज बोलना
एक जोड़ी चप्पल भी काफ़ी है
सारे भूगोल को नाप डालने के लिए'। ( वही, कैलाशपति निषाद की स्मृति में, पृष्ठ 129)
यह तक तो कविता कैलाशपति का शब्द व भाव चित्र बनी रहती है जिसके बाद केदार जी की कविता स्वतंत्र अपनी उड़ान पर निकल जाती है और काव्य में साधारण की परिधियों का विस्तार करती है-
'एक झांझ
एक मजीरा
एक पुराना ढोलक भी पहुंचा सकता है
उदात्त की ऊंचाइयों तक।' (वही)

Monday 26 October 2009

क्यों लगते हो अच्छे केदारनाथ सिंह!


नामवर को बाबा
तुम्हें त्रिलोचन
और मुझे तुम
क्यों लगते हो अच्छे केदारनाथ सिंह?

शायद इसलिए कि स्वाद
एक गंध का नाम है
गंध एक स्मृति है

जो बहती है हमारी धमनियों में
जिस पर नाव की तरह तिरता है
एक प्रकाश स्तम्भ
जो जीवंत इतिहास है।

सोचता हूँ तुम्हारी कविताएं नहीं होतीं
तो मैं क्या पढ़ता केदारनाथ सिंह
शब्द परिचय के बावजूद?
और तुम क्या लिखते?

स्वयं तुम्हारी कविता ही
मांझी का पुल है
मल्लाह के खुश होने की परछाई!!

Friday 23 October 2009

केदारनाथ सिंह की कविताः आलोक और आयाम


केदारनाथ सिंह की कविता के कितने आयाम हैं यह मैं नहीं कह सकता। उनकी कविता, उनका जीवन दर्शन, उनका गद्य वैभव, उनके इशारे, उनकी चुप्पियां यह सब समझते, जानते मैंने 21 साल से अधिक का वक़्त गुज़ारा है, इसलिए मैं उसका आदी हो चला हूं। पहले पहल तो वे मेरे लिए कलकत्ता विश्वविद्यायल से पीएचडी के लिए महज एक शोध का विषय थे। उनका साहित्य ही नहीं वे भी क्योंकि मेरे विषय में उनका व्यक्तित्त्व भी शामिल था। चूंकि वह शोधकार्य पूरा होने के बावज़ूद विश्वविद्यालय में डिग्री के लिए प्रस्तुत नहीं किया जा सका इसलिए न उस शोधकार्य से पीछा छूटा और ना ही केदारजी से रिश्ता बदला। अब डिग्री मिल जाये तो संभवः है रिश्ते में कोई बदलाव आए। फिलहाल कभी वे मेरे लिए बोझ रहे तो कभी मुझे बोझ उठाने का साहस देने वाले। कभी मेरी पीड़ा का कारण बने तो कभी पीड़ाओं से उबरने का लगभग एकमात्र संभव रास्ता। चाहे-अनचाहे वे मेरे जीवन में कभी चोर दरवाज़े से तो कभी बोल-बतियाकर ऐलानिया आये। अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल मुझे केदार जी की रचनाओं के साथ गुज़ारने की सौभाग्य भी मिला और अभिशाप भी। कई बार मुझे लगा कि उनकी कविताएं हैं जो मुझे ढांढस बंधा रही हैं। कहीं कोई दूब दिख जाये तो समझ लो बहुत कुछ बचा है और सचमुच बहुत कुछ बचा रहता है आशा हो तो। मेरे जीवन के संघर्ष इतने जटिल और कठिन हुए, अपनो और गैरों की इतनी उपेक्षा, असहयोग और तिरस्कार मिले कि मेरे पास कोई न था अपना सिवाय केदार जी की कविताओं। पत्नी और बेटी को कोलकाता में छोड़ नये शहरों में रह पाया तो वह जीवट मुझे कविताओं से मिला और साहित्य के होने के मर्म को मैंने करीब से समझा। संघर्षों से जूझने के क्रम में मैंने मन को इतना कठोर कर रखा था कि किसी प्रकार की किसी कोमलता से जैसे दूर-दराज़ का रिश्ता ही न हो लेकिन वह बची रही...क्योंकि केदार जी की कविताएं मेरे पास थीं। मेरी अपनी रचनाशीलता की दुनिया में बेहद कठिन दिनों में किसी हद तक अकाल था.. संदेह होता था कि लेखक रह भी गया हूं या नहीं पर मैं मुतमइन था कहीं कोई लिख रहा है मेरे लिए। मेरी ओर से। शायद सबकी ओर से। कोई सबकी आवाज़ बने तो एक-एक को अलग से बोलने की बहुत ज़रूरत शायद नहीं होती। हम हैं हाथ उठाने के लिए कि हमारी बात कह दी गयी। केदार जी के कहे में हमारी बात भी है सो अलग से नहीं बोलेंगे। आप ही लिखिए केदार जी। आप जहां छोड़ेंगे वहीं से हमें शुरू करना है, वरना लिखने की कोई तुक नहीं। फिर भी हम लिख रहे हैं तो इसलिए कि काम बहुत है। अकेले के बस का नहीं है तो कुछ आप लिख लें कुछ हम भी सहयोग कर देते हैं। पहले आगे आगे त्रिलोचन थे, पर अब... हम आपकी बात को आगे ले जाने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं। आखिर आपका लेखन आपका एकल लेखन नहीं है। वह सामूहिक लेखन भी है। कम लोग ऐसे होते हैं जिनमें युग बोलता है। कम लोग हैं जिनके बोलने से दूसरे को वाणी मिल जाती है। पहले लगता है कि आवाज़ ही नहीं थी। हम ठीक-ठीक क्या सोचते हैं हमें पता नहीं था...कि उस सोच की भाषा क्या हो। कि हमें यह भी सोचना चाहिए था जो हमने नहीं सोचा और हमारा अधूरा काम किसी ने पूरा किया। कहीं कोई सीटी बजा रहा है, हम सो सकते हैं। आप अकेले नहीं हैं यदि थक भी गये तो.. उस आग को कोई न कोई आगे ले जायेगा जो आपको विरासत में मिली हुई थी और आपने संभाल रखी थी। हम भी हैं जो सीख रहे हैं कि आप क्या कह रहे हैं और किस-किस तरह से किस-किस के लिए। किस-किस अन्दाज में। हमारा स्वर भिन्न हो सकता है पर तान उठेगी वहीं से जहां से आपने छोड़ी है। कम से कम कोशिश रहेगी। नीयत रहेगी कि आपकी बात आगे बढ़े। बात वहीं से शुरू करेंगे जहां आपकी ख़त्म होगी।
पिछले ही महीने सुना केदार जी को। 27 दिसम्बर 2008 को केदार जी आकाशवाणी की ओर से कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद में आयोजित एक व्याख्यान में बोल रहे थे। हाशिए के लोगों द्वारा लिखे गये साहित्य पर। हाशिए के लोगों के साहित्य को साहित्य के मुख्य परिदृश्य में क्या स्थान मिलेगा इसकी चिन्ता थी। उन्होंने दलित साहित्यकारों को उद्धृत किया। दक्षिण के साहित्य की भी जमकर चर्चा की जिसके सम्बंध में हिन्दी साहित्य से जुड़े लोगों को कम ही जानकारी है और जिसको शामिल किये बिना और साथ रखे बिना भारतीय साहित्य को स्वभाव को सम्पर्णता में नहीं समझा जा सकता। महिला लेखन की भी चर्चा की और दलित महिला की भी जो दलित होने का भी दंश झेल रही है और स्त्री होने के कारण भी शोषित हो रही है। दोहरे शोषण की चर्चा थी। केदार जी ने अपनी कविताओं में भी मामूलियत को पूरी गरिमा के साथ पेश किया है। यह प्रवृत्ति प्रकृति की छोटी-मोटी हलचलों तक ही सीमित नहीं है बल्कि वे मामूली आदमी को भी उसकी गरिमा से प्रस्तुत करते हैं जिसका वह हक़दार है। उन्होंने चीजों को उससे सही परिप्रेक्ष्य व संदर्भ में ही प्रस्तुत नहीं किया है बल्कि वे उन चीजों को हाशिए पर रखने के विरोधी हैं जिनसे मिलकर जीवन बना है और उदात्तता तक को प्राप्त करता है। किन्ही गहरे अर्थों में वे उस हाशिए को लोगों को ही केन्द्र बनाते हैं जिसकी उपेक्षा बड़ी-बड़ी करते वक्त हो जाया करती है। एक बुजुर्ग कवि की नये विषयों पर गहरी चिन्ता ने यह स्पष्ट भान करा दिया कि युवता उम्र की मोहताज नहीं होती। नये विषयों से टकराने का माद्दा अब भी केदारजी में है और बाद की कई पीढ़ियों के लिए समकालीन ही बने रहे हैं और लगता है कि बने रहेंगे। लगभग सवा घंटे का उनका ओजस्वी व्याख्यान साहित्य की वाचिक परम्परा को भी आगे बढ़ाने वाला था। केदार जी अपनी कविताओं में पहले पहले जितने दुरुह लगते हैं वक्तव्य में उतने ही पारदर्शी हैं।
सम्भवतः अक्टूबर महीना ही था 2008 को इससे पिछली मुलाकात का। बोटानिकल गार्डेन, हावड़ा के समीप उनकी बहन के घर पर मैं उनसे मिलने पहुंचा था। वहां बातचीत के दौरान गा़लिब के एक शेर और तुलसीदास की एक काव्य पंक्ति के मर्म को जिस तल्लीनता से काफ़ी समय तक मुझे समझाते रहे वह मेरे लिए विस्मयकारी था। वे अर्थ की इतनी तहें खोलने का हुनर जानते हैं कि भ्रम होता है कि यह हमारे समय का सबसे बड़ा कवि है या व्याख्याकार। और मैं नाचीज़ कैसे उनकी व्याख्याओं को अपने मन-मस्तिष्क में रखा पाऊंगा। उनकी दुर्लभ बातें तिरोहित हो जायेंगी। मेरे पास उस समय टेपरिकार्ड नहीं था कि मैं उनकी बातों को रिकार्ड कर लूं और कागज़ पर लिखने से उनकी बातों का क्रम टूटता और संभव है कि वे अपनी रौ में जो कुछ कह रहे थे वह औपचारिकता के कारण अपनी गरिमा खो बैठता। पर वे जो कुछ कह रहे थे उसकी आंच थी जो मेरे भीतर कहीं महफूज़ रहेगी ऐसा मेरा विश्वास है और शायद उनका भी यही हो वरना अनौपचारिक बातों में इतना ऊष्मा खर्च करने की उन्हें आवश्यकता नहीं थी मैं तो हवा में आंख से ओझल होने तक विदा के लिए हवा में लहराते उन हाथों की कौंध से ही रोमांचित और आह्लादित हूं। वे मना करने के बाद भी बैठकखाने से आवास परिसर के गेट तक मुझे उनके छोड़ने आये थे और गेट के सामने की बस के खड़े होने के बाद मेरे उस पर चढ़ तक खड़े रहे। बस में बैठकर खिड़की से मैंने विदा के लिए हाथ लहराया था जिसका इस सदी के एक महान बुजुर्ग कवि ने प्रत्युत्तर दिया था। यह जो बाद की पीढ़ियों से केदार जी का प्रत्युत्तर का रिश्ता है वह भी उनकी कविताओं और आकांक्षाओं में झांकता मिल जायेगा। यह दस-बारह वर्ष बाद हुई मुलाकात थी। इस बीच मैं कोलकाता से अमृतसर, जालंधर, इंदौर और जमशेदपुर में पत्रकारिता की पेशागत मज़बूरियों के कारण गया और फिर वापसी भी हो गयी। अलग-अलग शहरों में मेरे ज़रूरी सामानों के साथ रहीं केदार जी की लगभग सारी किताबें। सामान एक शहर से दूसरे शहर ले जाने की जहमत से बचने के लिए काफी कुछ पीछे छोड़ना पड़ता है किन्तु यह किताबें साथ लगी रहीं तो लगी रहीं। केदार जी की किसी कविता का अर्थ ठीक-ठीक बता पाना अब मेरे वश में नहीं रहा। हर बार एक नये अर्थ के साथ वे मेरे सामने होती हैं, नये संदर्भों की नयी व्याख्या प्रस्तुत करती हुईं। उनकी कविताओं जैसा आसान और जटिल मेरे लिए कोई और शै नहीं।
फिर भी उनकी कविताओं में जिन तत्त्वों ने अपना ध्यानाकर्षण किया उनकी चर्चा यहां करना चाहूंगा। 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएं' में सबसे तेज़ कोई अनुभूति परिलक्षित होती है तो वह है विस्थापन की, जिसका आरम्भ उनके पिछले संग्रह 'अकाल में सारस' में ही हो गया था किन्तु इसमें विस्थापन की पीड़ा के दोहरे स्तर देखने को मिलते हैं। मुझे लगता है कि दुनिया में विस्थापन एक ऐसा मुद्दा है जो साहित्य के लिए बहुत अहम है और जाने अनजाने तमाम बड़े लेखकों के साहित्य में यह लगभग केन्द्रीय भूमिका का निर्वाह करता रहा है। विस्थापन की समस्या एक जटिल समस्या है और विस्थापन के रूप भी अनेक हैं जिनकी शिनाख्त केदार जी ने बड़ी तल्खी से की है। उनकी कविता के विशेष तत्त्वों में एक है प्रश्नाकूलता, दूसरा एक खास तरह की अध्यात्मिकता और तीसरी भाषा। अर्थ व विचार से जुड़े उपकरणों को कविता के लिए प्रायः द्वितीयक बनाने का कौतुक करते हुए स्वायत्तता प्रदान करना मुझे विशेष आकर्षित करता है। भाषा के सम्बंध में उनका संशय उत्तरोत्तर बढ़ा है और इस बात की लगातार शिनाख्त करते दिखायी देते हैं कि भाषा कहां है, कैसे बचेगी और कहां विफल है, कहां विकसित किये जाने की आवश्यकता है और इस क्रम में उन्हें इस बात का आभास भी होता है कि भाषा को अभी विकसित होना बचा है-'जितनी वह चुप थी/बस उतनी ही भाषा/बची थी मेरे पास।' (उसकी चुप्पी ) कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जिनमें उनकी करुणा अध्यात्म के स्तर तक पहुंची है जिनमें एक है बची हुई करुणा, लोरी, नदियां। यह उनकी अध्यात्मिक ऊंचाई ही है कि वे लिखते हैं-'दरख़्तों की छाल/और हमारी त्वचा का गोत्र/एक ही है/परछाइयां भी असल में/नदियां ही हैं/हमीं से फूटकर/हमारी बगल में चुपचाप बहती हुई नदियां।' ( नदियां)
केदार जी गतिशील को स्थूल बनाने के पक्षधर नहीं बल्कि स्थूल को गतिशील बनाने के हिमायती रहे हैं। उनकी बहुचर्चित कविता 'मांझी का पुल' अपनी स्थूलता के कारण नहीं बल्कि गतिशीलता के कारण महत्त्वपूर्ण मानी गयी वहां 'मांझी का पुल' एक ठोस भौतिक पुल नहीं रह जाता बल्कि वह लोगों के मानस में टंगा एक पुल बन जाता है। उनके अनुसार 'हर पुल में छिपी रहती है एक नाव।' यही कारण है कि वे कवि कबीर के नाम की कताई मिल में बुने जाने के विरुद्ध हैं क्योंकि वे चाहते हैं नाम की गरिमा बनी रहे। नाम से एक पूरी संस्कृति जुड़ी होती है। उनका व्यक्तिगत जीवन, विश्व साहित्य का सतत अध्ययन और 'समूचा विश्व होना चाहने की चाहत' यहां एक ऐसी काव्य दृष्टि का विकास करने में सक्षम हुई है जो हिन्दी व भारतीय कविता में किसी हद तक विरल है। मनुष्य की अक्षय उर्जा व अदम्य जिजीविषा है और परम्परा से मिली दिशाएं हैं जिनका संधान उन्होंने आवश्यकतानुसार अपनी पिछली ज़िन्दगी की ओर मुड़कर भी किया है। वे अपने काव्य सृजन में आगे तो बढ़ते रहे हैं किन्तु पीछे का नष्ट नहीं करते बल्कि उसकी भी कोई न कोई लीक बची रहती है जहां आवश्यकतानुसार वे लौटते हैं। कवि केदार कविता के नये अनजान सफर पर बार-बार जाते हैं तो वहां पीछे छूटा हुआ बहुत कुछ भी काम का लगता है और वे पीछे छूटे हुए को भी आगे की यात्रा का पाथेय बना लेते हैं। इस प्रकार उनकी कविता दोहरी यात्राओं की एक अनवरत सिलसिला है। वे जिस जमीन को पीछे छोड़कर आये हैं उसके पक रहे होने के बारे में भी वे लगातार सोचते हैं। यही कारण है कि उनका अपना प्रिय काव्य संग्रह 'ज़मीन पक रही है' है। केदार जी ने 'बाघ' (काव्य ग्रंथ का नाम भी) के माध्यम से एक ऐसे चरित्र की रचना की है जो कला के सत्य की तरह है, जिसमें जादू होता है होता है सच जैसा झूठ और झूठ जैसा सच। स्मृतियां जिसमें व्यक्ति का एकाकी नहीं बल्कि आदिम काल से लेकर विभिन्न सभ्यताओं का इतिहास, पशु-पक्षी, वनस्पतियों, पदार्थ, अपदार्थ, पहाड़, नदी, पठार, खेत, नाले, समुद्र, एकल व समूह की इच्छा आकांक्षा, स्वप्न, जीवन संघर्ष, अस्मिताओं का टकराहट, हिंसा, करुणा, स्वार्थ, परमार्थ, गीत, साहित्य, धर्म, भाषा की यात्राएं, पर्यावरण से जुड़े प्रश्न सब कुछ अन्तरगुम्फित होते हैं। कला के उपलब्ध और अर्जित स्वभाव व सत्य, सीमाओं और आकांक्षाओं, परम्परा और प्रयोग को उन्होंने बाघ की काया दी है। वह जितना मूर्त है उतना ही अमूर्त जिसके बिना कोई महान कला अपनी यात्रा पूरी कर ही नहीं सकती। यह कला ही बाघ है। कला को लेकर जितनी भी चिन्ताएं थी वह 'बाघ' में देखी जा सकती हैं। केदार जी ने कला से युक्त कर दुनिया जहांन के तमाम उपकरणों, विचारसरणियों, मनुष्य मात्र की उपलब्धियों व जय पराजय को लेकर जो कुछ सोचा-समझा और अनुभव किया है वह 'बाघ' के माध्यम से सम्प्रेषित किया है। कलाकार आखि़र अपनी कृतियों में देता क्या है, वही जो वह अनुभव करता है, सोचता है, जिसके स्वप्न देखता है, जो उसकी अभीप्सा है जिसे व्यक्त करने के वह माध्यम खोजता है। जो कलाकार जितना बड़ा होता है वह अपने दिवास्वप्न को आंकने के उतने ही व्यापक कैनवास को चुनता है। केदार ने मिश्रित माध्यमों को चुना है और एक महाकाव्यत्मक कैनवास। एक ऐसा चरित्र जो उन्हें सम्पूर्णता में व्यक्त होने में आड़े न आये वह उतना ही वायवीय हो जितना ठोस। वह उतना ही अपदार्थ हो जितना पदार्थ। उतना ही स्वप्न हो जितना यथार्थ। केदार जी ने अपने को व्यक्त होने के लिए किसी हद तक गीतों की रचना से अपने को मुक्त कर लिया क्योंकि उन्हें वह माध्यम पसंद नहीं जो उन्हें परिधियों में बांधते हों। बिम्ब के प्रति आरम्भ से रुझान का एक कारण किन्हीं गहरे अर्थों में केदार जी की यह प्रवृत्ति है जो उन्हें विषय व वस्तु से मुक्त करती रही है और एक कृति के अन्दर कई कृतियों सी आज़ादी देती है। केदार जी इधर, लगातार भाषा की मुक्ति ओर झुके हुए हैं उसके स्वभाव को समझने में लगे हैं और उसमें एक गुणात्मक परिवर्तन भी उनकी भाषा में चुपचाप घटित हो रहा है जो उनकी कविता तक सीमित नहीं रहना है क्योंकि उन्होंने उस भाषा को ऐसी कृतियों में बांधा है जो समय पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाने में समर्थ है। पाणिनी उनकी कविताओं में इधर बार-बार यूं ही नहीं आते हैं। केदार जी अर्थ वह शब्दों की ध्वनियों से लिए भाषा में स्पेस गढ़ रहे हैं और स्पेस के लिए अर्थ की संभावना। अर्थ के लिए एक बहुआयामिता और कविता को निष्कर्ष तक पहुंचने की विवशता और अभिशाप से भी मुक्ति दिलाने में लगे हैं। वे जिस नये ककहरे को शुरू करना चाहते हैं उसका प्रारम्भ 'बाघ' कृति को मान लेना ग़लत न होगा। यहां उन्होंने बिम्ब की तुलना में एक वृहत्तर किन्तु लगभग वैसी ही आज़ादी ली है, एक समूची कृति जिसमें वे मनचाहे तरीके से अपने उस विजन को रख सकें जो साहित्य व समाज, साहित्य व व्यक्ति पर सोचने के उपक्रम में विकसित किया है, जो अब एक दर्शन का रूप ले चुका है।
बाघ की बहुआयमी छवियां, बहुआयामी अर्थ, अर्थ का विलोम, भाषा, अर्थ, संवेदना, भाषिक संरचना, आधुनिकता, आदिमवृत्तियां, राजनीति, पर्यावरण, शहर और गांव, विस्थापन, युगीन आतंक, जीवन-मुत्यु के प्रश्न सब कुछ के यहां एक नये स्वभाव व रचाव में नज़र आता है जिससे कला की प्रयोजनशीलता व प्रतिबद्धता के औचित्य पर भी प्रश्न चिह्न लग गया है। कविता में जो स्वर सबसे अधिक उभर कर आया है वह है करुणा का और बुद्ध इस कृति में भी उपस्थित हैं। केदार जी की पूरी कविता में करुणा और बुद्ध के लिए पर्याप्त स्थान है। कविता में बीसवीं सदी की उपलब्धियों और आधुनिकता को ध्वस्त करती यह कृति अपने लिए अनन्त पाठों के लिए खुली ज़गह छोड़ती है जिसके बाद न सिर्फ़े हिन्दी या भारतीय कविता बल्कि वैश्विक कविता का स्वभाव बदल जायेगा, ऐसा विश्वास है। फिलहाल तो आलोचक इसके अपने-अपने पाठ को व्यक्त करने में लगे हैं और जिसके जितने पाठ हैं उतने ही बाघ। और उनके एक बाघ में कई-कई बाघ। बाघ से गुज़रना हर पाठक के लिए अपने स्वभाव, ज्ञान व संवेदना के अनुरूप बाघ से गुज़रना है। यह इस कृति की एक बड़ी सफलता है। हर पाठक के पास उसके अपने बाघ का आस्वाद है। बाघ का अपना अर्थ है अपनी छवियां हैं। बाघ से जुड़ी कथा परम्परा भारत में सुदीर्घ रही है और विश्व स्तर पर भी बाघ को लेकर रचनाएं होती रही हैं उसमें एक मील का पत्थर साबित हुई है केदारनाथ सिंह की 'बाघ'। और इस बाघ के आगे बाकी बाघों का तिलस्म कुछ कम हुआ है। किसी बाघ के इतने रूपाकार नहीं है। इतनी वैविध्यपूर्ण अर्थछवियां नहीं रही हैं। हर खण्ड में वे नये सिरे से जाल फेंकते और फिर समेट लेते हैं। हर बार जाल में एक नया बाघ फंसता है नये रूप-अर्थ-ध्वनि-भंगिमा के साथ। और वे उसे फिर आज़ाद छोड़ देते हैं। दरअसल इस लम्बी कविता में एक बिम्ब का जैविक हो उठना है। एक बिम्ब एक इतना शक्तिशाली हो उठना जिसके भरोसे कविताओं की एक शृंखला रची गयी है और जिसमें सांमजस्य बिठाकर या यह कहें कि कुछ संगतियों को जोड़कर एक लम्बी कविता का गठन कर लिया गया है। कविता में एक शक्तिशाली बिम्ब बाघ का एक जीते-जागते पशु में तब्दील जाने की विलक्षण घटना है और चूंकि वह बिम्ब है इसलिए उसमें रूप परिवर्तन की क्षमता पहले से है और उसमें प्रतिबिम्ब बन जाने की भी।चूंकि वह बिम्ब सो उसमें की तमाम विशेषताएं भी विद्यमान है और यह बिम्ब बिम्बत्व की अपनी सारी खूबियों से लैस, सो वह आदमी की संवेदना के करीब भी और वह एक ऐसे पुल के सृजन में कामयाब भी जो सृष्टि की समस्त इकाईयों के बीच वह साझेदारी स्थापित करने में लगा है जो कवि का अभिप्रेय है। केदार जी की कामनाओं, इच्छाओं अभिप्साओं का वाहक। केदार जी का बाघ उनकी संवेदना है। यह अनायास नहीं है कि प्यार तक को केदार जी ने बाघ कहा है। वह चिन्तित बाघ के मनुष्य के भविष्य को लेकर जो उनकी भी चिन्ता है। बाघ कवि का प्रवक्ता भी है और हरकारा भी। यहां वह बिम्ब नहीं रह गया है बिम्ब से बढ़कर सदैव साथ निभाने वाला एक सहचर। एक सीटी जो इसलिए बजती रहती है ताकि लोग चैन से सो सकें-'कि इस समय मेरी जिह्वा पर/जो एक विराट् झूठ है/वही है-वही है मेरी सदी का/सब से बड़ा सच/यह लो मेरा हाथ/इसे तुम्हें देता हूं।'(बाघ) यह केदार जी का हाथ है बाघ। जो अपने पीछे छोड़ है गया है उनके होठों पर थरथराहट-'और अपने पास रखता हूं/अपने होठों की/थरथराहट...../एक कवि को /और क्या चाहिए!'( बाघ)
एक कवि का सर्वस्व जनता के साथ है। यही उसका संतोष है कि उसने जो कुछ जिसके लिए किया उसी के हवाले कर दे और क्या चाहिए एक कवि को। और यह जिह्वा पर है वह उनका रचनामर्म नहीं है तो क्या है। और जो जिह्वा पर है वह कोई मामूली चीज़ नहीं है विराट् झूठ है। झूठ के साथ विराट् विशेषण को उन्होंने जोड़ा है तो झूठ वह बाघ है जिसके माध्यम से वे उसे विराट् को कहते हैं जो उन्होंने अर्जित किया है, और जो अर्जित किया है वह सदी का सबसे बड़ा सच है। इसलिए विराट् है, उसे कहने के बाद होठों पर रह गयी है एक थरथराहट। वह थरथराहट जो महाभारत में अर्जुन को उपदेश देने के बाद कहीं न कहीं ज़रूर होगी श्रीकृष्ण के होठों पर। श्रीकृष्ण ने उस युग का सबसे बड़ा सच अर्जुन से कहा था गीता से, वह भी रणक्षेत्र में, जहां हिंसा की प्रबल संभावना है। केदार जी भी अपने कथन के लिए हिंस्र पशु का सहारा लेते हैं लेकिन वह हिंस्र पशु महानायक रहा है भारतीय कथा साहित्य में। और भारत में नायकत्व के जो परम्परागत गुण हैं वे बाघ से प्रेरित रहे हैं। केदार जी ने अपनी बात कहने के लिए बाघ के नायकत्व को स्वीकार किया है। वे चाहते तो आसानी से बाघ को जैविक ही बने रहने देते जो उनके बिम्ब से उपजा था किन्तु ऐसा करना बाघ के शिकार जैसा ही था। उन्होंने बाघ को जैविक से फिर बिम्ब बनाकर उसे बचा लिया। और यही वह करिश्मा है कि वह बाघ पाठक के मन में अपना अलग-अलग रूपाकार लेता है। अपनी विभिन्न छवियों से रिझाता, डरता, भरमाता है। यह किस्सों से निकलकर आखेट का नया कौशल है बाघ के बिम्ब का जो, केदार जी ने उसे सिखाया है। यह कौशल उनकी लम्बी काव्य साधना से आया है। यह जो अनवरत यात्रा है वही उनके घुटनों में दर्द का कारण भी और वही यात्रा उनकी यात्रा में हासिल खुशी भी। यात्रा से जो तलवों में जलन है वही विचारों में धमक पैदा कर सकी है-'कि मेरी आत्मा में जो खुशी है/असल में वही है/मेरे घुटनों में दर्द/तलवों में जो जलन/मस्तिष्क में वही/विचारों की धमक।' (बाघ)
आधुनिकता को लेकर केदार जी शुरू से चौकन्ने रहे हैं और उन्होंने भारत की देशज आधुनिकता का अन्वेषण भी किया है इस क्रम में उन्होंने पाश्चात्य आधुनिकता से लगातार संवाद बनाये रखा है जिसका प्रमाण रिल्के, पाउण्ड, रेने शा जैसे कवियों पर लिखे निबंध, सामयिक टिप्पणियां, स्मृतिलेख, आत्मपरक लेख और साक्षात्कार आदि हैं। 'कब्रिस्तान में पंचायत' स्मरणधर्मी आलेखों के संग्रह में वे अपने गद्य की विलक्षण भंगिमा के साथ उपस्थित हैं जिसमें उनकी सोच, उनकी संवेदना और अनुभव जगत उनके स्मृति लोक से कई बार एकाकार होता नजर आता है तो कई बार वे समाज की मौजूदा तल्ख स्थितियों पर सार्थक टिप्पणी करते नजर आते हैं। यहां वे उस दायरे से बाहर भी निकलते दिखायी देते हैं जो किसी लेखक की दुनिया से जुड़ा हो। वे इसमें उस वृहत्तर समुदाय की उन चिन्ताओं से जुड़ते दिखायी देते हैं जो एक नागरिक की चिन्ताएं हैं। कहना न होगा कि इन आलेखों से कवि केदारनाथ सिंह की आंतरिक दुनिया में विस्तार के नये आयाम दिखायी देते हैं और वह समरसता टूटती है इन लेखों के पहले उनकी रचनाशीलता में व्याप्त थी। ये आलेख केदार जी का अपने संसार से और बाहर आने की घटना का साक्ष्य हैं। वे उन लोगों को और अधिक समझते दिखायी देते हैं, जो साहित्य की दुनिया में अमूर्तता की ओर बढ़ रहे थे। उन अप्रिय स्थितियों से उनका साबका इनमें होता दिखायी देता है जो इसके पूर्व यदाकदा था।
दक्षिण भारत के कुछ कालजयी रचनाकारों पर भी उन्होंने कलम चलायी है जिनमें अक्का महादेवी, अल्लामा प्रभु, विद्रोही संत कवि वसवन्ना, कुमारन आशान, दलित कविता के पितामह गुर्रम जाशुआ आदि भी शामिल हैं। पुश्किन, एब्तुशेंका की नयी कविताओं, जापानी कवि तोगे संकिची पर भी उन्होंने लिखा है। इन आलेखों को पढ़कर यह बात बार -बार मन में उठती है कि केदार जी की अन्तर्दृष्टि का विकास उस दिशा में हुआ है जहां वे चीज़ों में से उन तत्त्वों का सहज अन्वेषण कर लेते हैं जो पूरी मनुष्यता के लिए उपयोगी हैं। वे जानते हैं कि किन तत्त्वों के तार किससे मिलने हैं। वह कौन सा धागा है जो सारी चीजों को एक तरबीत देता है। ये अध्याय कहना न होगा कि दक्षिण और उत्तर भारत की कविता को एकसूत्रता में बांधते दिखायी देते हैं और भारतीय साहित्य का एक ऐसा खाका प्रस्तुत करते हैं जिसे विश्व साहित्य के समक्ष पूरे गौरव के साथ रखा जा सकता है।
(प्रकाशितः वागर्थ, मार्च 2009)
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