Friday 23 October 2009

केदारनाथ सिंह की कविताः आलोक और आयाम


केदारनाथ सिंह की कविता के कितने आयाम हैं यह मैं नहीं कह सकता। उनकी कविता, उनका जीवन दर्शन, उनका गद्य वैभव, उनके इशारे, उनकी चुप्पियां यह सब समझते, जानते मैंने 21 साल से अधिक का वक़्त गुज़ारा है, इसलिए मैं उसका आदी हो चला हूं। पहले पहल तो वे मेरे लिए कलकत्ता विश्वविद्यायल से पीएचडी के लिए महज एक शोध का विषय थे। उनका साहित्य ही नहीं वे भी क्योंकि मेरे विषय में उनका व्यक्तित्त्व भी शामिल था। चूंकि वह शोधकार्य पूरा होने के बावज़ूद विश्वविद्यालय में डिग्री के लिए प्रस्तुत नहीं किया जा सका इसलिए न उस शोधकार्य से पीछा छूटा और ना ही केदारजी से रिश्ता बदला। अब डिग्री मिल जाये तो संभवः है रिश्ते में कोई बदलाव आए। फिलहाल कभी वे मेरे लिए बोझ रहे तो कभी मुझे बोझ उठाने का साहस देने वाले। कभी मेरी पीड़ा का कारण बने तो कभी पीड़ाओं से उबरने का लगभग एकमात्र संभव रास्ता। चाहे-अनचाहे वे मेरे जीवन में कभी चोर दरवाज़े से तो कभी बोल-बतियाकर ऐलानिया आये। अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल मुझे केदार जी की रचनाओं के साथ गुज़ारने की सौभाग्य भी मिला और अभिशाप भी। कई बार मुझे लगा कि उनकी कविताएं हैं जो मुझे ढांढस बंधा रही हैं। कहीं कोई दूब दिख जाये तो समझ लो बहुत कुछ बचा है और सचमुच बहुत कुछ बचा रहता है आशा हो तो। मेरे जीवन के संघर्ष इतने जटिल और कठिन हुए, अपनो और गैरों की इतनी उपेक्षा, असहयोग और तिरस्कार मिले कि मेरे पास कोई न था अपना सिवाय केदार जी की कविताओं। पत्नी और बेटी को कोलकाता में छोड़ नये शहरों में रह पाया तो वह जीवट मुझे कविताओं से मिला और साहित्य के होने के मर्म को मैंने करीब से समझा। संघर्षों से जूझने के क्रम में मैंने मन को इतना कठोर कर रखा था कि किसी प्रकार की किसी कोमलता से जैसे दूर-दराज़ का रिश्ता ही न हो लेकिन वह बची रही...क्योंकि केदार जी की कविताएं मेरे पास थीं। मेरी अपनी रचनाशीलता की दुनिया में बेहद कठिन दिनों में किसी हद तक अकाल था.. संदेह होता था कि लेखक रह भी गया हूं या नहीं पर मैं मुतमइन था कहीं कोई लिख रहा है मेरे लिए। मेरी ओर से। शायद सबकी ओर से। कोई सबकी आवाज़ बने तो एक-एक को अलग से बोलने की बहुत ज़रूरत शायद नहीं होती। हम हैं हाथ उठाने के लिए कि हमारी बात कह दी गयी। केदार जी के कहे में हमारी बात भी है सो अलग से नहीं बोलेंगे। आप ही लिखिए केदार जी। आप जहां छोड़ेंगे वहीं से हमें शुरू करना है, वरना लिखने की कोई तुक नहीं। फिर भी हम लिख रहे हैं तो इसलिए कि काम बहुत है। अकेले के बस का नहीं है तो कुछ आप लिख लें कुछ हम भी सहयोग कर देते हैं। पहले आगे आगे त्रिलोचन थे, पर अब... हम आपकी बात को आगे ले जाने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं। आखिर आपका लेखन आपका एकल लेखन नहीं है। वह सामूहिक लेखन भी है। कम लोग ऐसे होते हैं जिनमें युग बोलता है। कम लोग हैं जिनके बोलने से दूसरे को वाणी मिल जाती है। पहले लगता है कि आवाज़ ही नहीं थी। हम ठीक-ठीक क्या सोचते हैं हमें पता नहीं था...कि उस सोच की भाषा क्या हो। कि हमें यह भी सोचना चाहिए था जो हमने नहीं सोचा और हमारा अधूरा काम किसी ने पूरा किया। कहीं कोई सीटी बजा रहा है, हम सो सकते हैं। आप अकेले नहीं हैं यदि थक भी गये तो.. उस आग को कोई न कोई आगे ले जायेगा जो आपको विरासत में मिली हुई थी और आपने संभाल रखी थी। हम भी हैं जो सीख रहे हैं कि आप क्या कह रहे हैं और किस-किस तरह से किस-किस के लिए। किस-किस अन्दाज में। हमारा स्वर भिन्न हो सकता है पर तान उठेगी वहीं से जहां से आपने छोड़ी है। कम से कम कोशिश रहेगी। नीयत रहेगी कि आपकी बात आगे बढ़े। बात वहीं से शुरू करेंगे जहां आपकी ख़त्म होगी।
पिछले ही महीने सुना केदार जी को। 27 दिसम्बर 2008 को केदार जी आकाशवाणी की ओर से कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद में आयोजित एक व्याख्यान में बोल रहे थे। हाशिए के लोगों द्वारा लिखे गये साहित्य पर। हाशिए के लोगों के साहित्य को साहित्य के मुख्य परिदृश्य में क्या स्थान मिलेगा इसकी चिन्ता थी। उन्होंने दलित साहित्यकारों को उद्धृत किया। दक्षिण के साहित्य की भी जमकर चर्चा की जिसके सम्बंध में हिन्दी साहित्य से जुड़े लोगों को कम ही जानकारी है और जिसको शामिल किये बिना और साथ रखे बिना भारतीय साहित्य को स्वभाव को सम्पर्णता में नहीं समझा जा सकता। महिला लेखन की भी चर्चा की और दलित महिला की भी जो दलित होने का भी दंश झेल रही है और स्त्री होने के कारण भी शोषित हो रही है। दोहरे शोषण की चर्चा थी। केदार जी ने अपनी कविताओं में भी मामूलियत को पूरी गरिमा के साथ पेश किया है। यह प्रवृत्ति प्रकृति की छोटी-मोटी हलचलों तक ही सीमित नहीं है बल्कि वे मामूली आदमी को भी उसकी गरिमा से प्रस्तुत करते हैं जिसका वह हक़दार है। उन्होंने चीजों को उससे सही परिप्रेक्ष्य व संदर्भ में ही प्रस्तुत नहीं किया है बल्कि वे उन चीजों को हाशिए पर रखने के विरोधी हैं जिनसे मिलकर जीवन बना है और उदात्तता तक को प्राप्त करता है। किन्ही गहरे अर्थों में वे उस हाशिए को लोगों को ही केन्द्र बनाते हैं जिसकी उपेक्षा बड़ी-बड़ी करते वक्त हो जाया करती है। एक बुजुर्ग कवि की नये विषयों पर गहरी चिन्ता ने यह स्पष्ट भान करा दिया कि युवता उम्र की मोहताज नहीं होती। नये विषयों से टकराने का माद्दा अब भी केदारजी में है और बाद की कई पीढ़ियों के लिए समकालीन ही बने रहे हैं और लगता है कि बने रहेंगे। लगभग सवा घंटे का उनका ओजस्वी व्याख्यान साहित्य की वाचिक परम्परा को भी आगे बढ़ाने वाला था। केदार जी अपनी कविताओं में पहले पहले जितने दुरुह लगते हैं वक्तव्य में उतने ही पारदर्शी हैं।
सम्भवतः अक्टूबर महीना ही था 2008 को इससे पिछली मुलाकात का। बोटानिकल गार्डेन, हावड़ा के समीप उनकी बहन के घर पर मैं उनसे मिलने पहुंचा था। वहां बातचीत के दौरान गा़लिब के एक शेर और तुलसीदास की एक काव्य पंक्ति के मर्म को जिस तल्लीनता से काफ़ी समय तक मुझे समझाते रहे वह मेरे लिए विस्मयकारी था। वे अर्थ की इतनी तहें खोलने का हुनर जानते हैं कि भ्रम होता है कि यह हमारे समय का सबसे बड़ा कवि है या व्याख्याकार। और मैं नाचीज़ कैसे उनकी व्याख्याओं को अपने मन-मस्तिष्क में रखा पाऊंगा। उनकी दुर्लभ बातें तिरोहित हो जायेंगी। मेरे पास उस समय टेपरिकार्ड नहीं था कि मैं उनकी बातों को रिकार्ड कर लूं और कागज़ पर लिखने से उनकी बातों का क्रम टूटता और संभव है कि वे अपनी रौ में जो कुछ कह रहे थे वह औपचारिकता के कारण अपनी गरिमा खो बैठता। पर वे जो कुछ कह रहे थे उसकी आंच थी जो मेरे भीतर कहीं महफूज़ रहेगी ऐसा मेरा विश्वास है और शायद उनका भी यही हो वरना अनौपचारिक बातों में इतना ऊष्मा खर्च करने की उन्हें आवश्यकता नहीं थी मैं तो हवा में आंख से ओझल होने तक विदा के लिए हवा में लहराते उन हाथों की कौंध से ही रोमांचित और आह्लादित हूं। वे मना करने के बाद भी बैठकखाने से आवास परिसर के गेट तक मुझे उनके छोड़ने आये थे और गेट के सामने की बस के खड़े होने के बाद मेरे उस पर चढ़ तक खड़े रहे। बस में बैठकर खिड़की से मैंने विदा के लिए हाथ लहराया था जिसका इस सदी के एक महान बुजुर्ग कवि ने प्रत्युत्तर दिया था। यह जो बाद की पीढ़ियों से केदार जी का प्रत्युत्तर का रिश्ता है वह भी उनकी कविताओं और आकांक्षाओं में झांकता मिल जायेगा। यह दस-बारह वर्ष बाद हुई मुलाकात थी। इस बीच मैं कोलकाता से अमृतसर, जालंधर, इंदौर और जमशेदपुर में पत्रकारिता की पेशागत मज़बूरियों के कारण गया और फिर वापसी भी हो गयी। अलग-अलग शहरों में मेरे ज़रूरी सामानों के साथ रहीं केदार जी की लगभग सारी किताबें। सामान एक शहर से दूसरे शहर ले जाने की जहमत से बचने के लिए काफी कुछ पीछे छोड़ना पड़ता है किन्तु यह किताबें साथ लगी रहीं तो लगी रहीं। केदार जी की किसी कविता का अर्थ ठीक-ठीक बता पाना अब मेरे वश में नहीं रहा। हर बार एक नये अर्थ के साथ वे मेरे सामने होती हैं, नये संदर्भों की नयी व्याख्या प्रस्तुत करती हुईं। उनकी कविताओं जैसा आसान और जटिल मेरे लिए कोई और शै नहीं।
फिर भी उनकी कविताओं में जिन तत्त्वों ने अपना ध्यानाकर्षण किया उनकी चर्चा यहां करना चाहूंगा। 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएं' में सबसे तेज़ कोई अनुभूति परिलक्षित होती है तो वह है विस्थापन की, जिसका आरम्भ उनके पिछले संग्रह 'अकाल में सारस' में ही हो गया था किन्तु इसमें विस्थापन की पीड़ा के दोहरे स्तर देखने को मिलते हैं। मुझे लगता है कि दुनिया में विस्थापन एक ऐसा मुद्दा है जो साहित्य के लिए बहुत अहम है और जाने अनजाने तमाम बड़े लेखकों के साहित्य में यह लगभग केन्द्रीय भूमिका का निर्वाह करता रहा है। विस्थापन की समस्या एक जटिल समस्या है और विस्थापन के रूप भी अनेक हैं जिनकी शिनाख्त केदार जी ने बड़ी तल्खी से की है। उनकी कविता के विशेष तत्त्वों में एक है प्रश्नाकूलता, दूसरा एक खास तरह की अध्यात्मिकता और तीसरी भाषा। अर्थ व विचार से जुड़े उपकरणों को कविता के लिए प्रायः द्वितीयक बनाने का कौतुक करते हुए स्वायत्तता प्रदान करना मुझे विशेष आकर्षित करता है। भाषा के सम्बंध में उनका संशय उत्तरोत्तर बढ़ा है और इस बात की लगातार शिनाख्त करते दिखायी देते हैं कि भाषा कहां है, कैसे बचेगी और कहां विफल है, कहां विकसित किये जाने की आवश्यकता है और इस क्रम में उन्हें इस बात का आभास भी होता है कि भाषा को अभी विकसित होना बचा है-'जितनी वह चुप थी/बस उतनी ही भाषा/बची थी मेरे पास।' (उसकी चुप्पी ) कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जिनमें उनकी करुणा अध्यात्म के स्तर तक पहुंची है जिनमें एक है बची हुई करुणा, लोरी, नदियां। यह उनकी अध्यात्मिक ऊंचाई ही है कि वे लिखते हैं-'दरख़्तों की छाल/और हमारी त्वचा का गोत्र/एक ही है/परछाइयां भी असल में/नदियां ही हैं/हमीं से फूटकर/हमारी बगल में चुपचाप बहती हुई नदियां।' ( नदियां)
केदार जी गतिशील को स्थूल बनाने के पक्षधर नहीं बल्कि स्थूल को गतिशील बनाने के हिमायती रहे हैं। उनकी बहुचर्चित कविता 'मांझी का पुल' अपनी स्थूलता के कारण नहीं बल्कि गतिशीलता के कारण महत्त्वपूर्ण मानी गयी वहां 'मांझी का पुल' एक ठोस भौतिक पुल नहीं रह जाता बल्कि वह लोगों के मानस में टंगा एक पुल बन जाता है। उनके अनुसार 'हर पुल में छिपी रहती है एक नाव।' यही कारण है कि वे कवि कबीर के नाम की कताई मिल में बुने जाने के विरुद्ध हैं क्योंकि वे चाहते हैं नाम की गरिमा बनी रहे। नाम से एक पूरी संस्कृति जुड़ी होती है। उनका व्यक्तिगत जीवन, विश्व साहित्य का सतत अध्ययन और 'समूचा विश्व होना चाहने की चाहत' यहां एक ऐसी काव्य दृष्टि का विकास करने में सक्षम हुई है जो हिन्दी व भारतीय कविता में किसी हद तक विरल है। मनुष्य की अक्षय उर्जा व अदम्य जिजीविषा है और परम्परा से मिली दिशाएं हैं जिनका संधान उन्होंने आवश्यकतानुसार अपनी पिछली ज़िन्दगी की ओर मुड़कर भी किया है। वे अपने काव्य सृजन में आगे तो बढ़ते रहे हैं किन्तु पीछे का नष्ट नहीं करते बल्कि उसकी भी कोई न कोई लीक बची रहती है जहां आवश्यकतानुसार वे लौटते हैं। कवि केदार कविता के नये अनजान सफर पर बार-बार जाते हैं तो वहां पीछे छूटा हुआ बहुत कुछ भी काम का लगता है और वे पीछे छूटे हुए को भी आगे की यात्रा का पाथेय बना लेते हैं। इस प्रकार उनकी कविता दोहरी यात्राओं की एक अनवरत सिलसिला है। वे जिस जमीन को पीछे छोड़कर आये हैं उसके पक रहे होने के बारे में भी वे लगातार सोचते हैं। यही कारण है कि उनका अपना प्रिय काव्य संग्रह 'ज़मीन पक रही है' है। केदार जी ने 'बाघ' (काव्य ग्रंथ का नाम भी) के माध्यम से एक ऐसे चरित्र की रचना की है जो कला के सत्य की तरह है, जिसमें जादू होता है होता है सच जैसा झूठ और झूठ जैसा सच। स्मृतियां जिसमें व्यक्ति का एकाकी नहीं बल्कि आदिम काल से लेकर विभिन्न सभ्यताओं का इतिहास, पशु-पक्षी, वनस्पतियों, पदार्थ, अपदार्थ, पहाड़, नदी, पठार, खेत, नाले, समुद्र, एकल व समूह की इच्छा आकांक्षा, स्वप्न, जीवन संघर्ष, अस्मिताओं का टकराहट, हिंसा, करुणा, स्वार्थ, परमार्थ, गीत, साहित्य, धर्म, भाषा की यात्राएं, पर्यावरण से जुड़े प्रश्न सब कुछ अन्तरगुम्फित होते हैं। कला के उपलब्ध और अर्जित स्वभाव व सत्य, सीमाओं और आकांक्षाओं, परम्परा और प्रयोग को उन्होंने बाघ की काया दी है। वह जितना मूर्त है उतना ही अमूर्त जिसके बिना कोई महान कला अपनी यात्रा पूरी कर ही नहीं सकती। यह कला ही बाघ है। कला को लेकर जितनी भी चिन्ताएं थी वह 'बाघ' में देखी जा सकती हैं। केदार जी ने कला से युक्त कर दुनिया जहांन के तमाम उपकरणों, विचारसरणियों, मनुष्य मात्र की उपलब्धियों व जय पराजय को लेकर जो कुछ सोचा-समझा और अनुभव किया है वह 'बाघ' के माध्यम से सम्प्रेषित किया है। कलाकार आखि़र अपनी कृतियों में देता क्या है, वही जो वह अनुभव करता है, सोचता है, जिसके स्वप्न देखता है, जो उसकी अभीप्सा है जिसे व्यक्त करने के वह माध्यम खोजता है। जो कलाकार जितना बड़ा होता है वह अपने दिवास्वप्न को आंकने के उतने ही व्यापक कैनवास को चुनता है। केदार ने मिश्रित माध्यमों को चुना है और एक महाकाव्यत्मक कैनवास। एक ऐसा चरित्र जो उन्हें सम्पूर्णता में व्यक्त होने में आड़े न आये वह उतना ही वायवीय हो जितना ठोस। वह उतना ही अपदार्थ हो जितना पदार्थ। उतना ही स्वप्न हो जितना यथार्थ। केदार जी ने अपने को व्यक्त होने के लिए किसी हद तक गीतों की रचना से अपने को मुक्त कर लिया क्योंकि उन्हें वह माध्यम पसंद नहीं जो उन्हें परिधियों में बांधते हों। बिम्ब के प्रति आरम्भ से रुझान का एक कारण किन्हीं गहरे अर्थों में केदार जी की यह प्रवृत्ति है जो उन्हें विषय व वस्तु से मुक्त करती रही है और एक कृति के अन्दर कई कृतियों सी आज़ादी देती है। केदार जी इधर, लगातार भाषा की मुक्ति ओर झुके हुए हैं उसके स्वभाव को समझने में लगे हैं और उसमें एक गुणात्मक परिवर्तन भी उनकी भाषा में चुपचाप घटित हो रहा है जो उनकी कविता तक सीमित नहीं रहना है क्योंकि उन्होंने उस भाषा को ऐसी कृतियों में बांधा है जो समय पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाने में समर्थ है। पाणिनी उनकी कविताओं में इधर बार-बार यूं ही नहीं आते हैं। केदार जी अर्थ वह शब्दों की ध्वनियों से लिए भाषा में स्पेस गढ़ रहे हैं और स्पेस के लिए अर्थ की संभावना। अर्थ के लिए एक बहुआयामिता और कविता को निष्कर्ष तक पहुंचने की विवशता और अभिशाप से भी मुक्ति दिलाने में लगे हैं। वे जिस नये ककहरे को शुरू करना चाहते हैं उसका प्रारम्भ 'बाघ' कृति को मान लेना ग़लत न होगा। यहां उन्होंने बिम्ब की तुलना में एक वृहत्तर किन्तु लगभग वैसी ही आज़ादी ली है, एक समूची कृति जिसमें वे मनचाहे तरीके से अपने उस विजन को रख सकें जो साहित्य व समाज, साहित्य व व्यक्ति पर सोचने के उपक्रम में विकसित किया है, जो अब एक दर्शन का रूप ले चुका है।
बाघ की बहुआयमी छवियां, बहुआयामी अर्थ, अर्थ का विलोम, भाषा, अर्थ, संवेदना, भाषिक संरचना, आधुनिकता, आदिमवृत्तियां, राजनीति, पर्यावरण, शहर और गांव, विस्थापन, युगीन आतंक, जीवन-मुत्यु के प्रश्न सब कुछ के यहां एक नये स्वभाव व रचाव में नज़र आता है जिससे कला की प्रयोजनशीलता व प्रतिबद्धता के औचित्य पर भी प्रश्न चिह्न लग गया है। कविता में जो स्वर सबसे अधिक उभर कर आया है वह है करुणा का और बुद्ध इस कृति में भी उपस्थित हैं। केदार जी की पूरी कविता में करुणा और बुद्ध के लिए पर्याप्त स्थान है। कविता में बीसवीं सदी की उपलब्धियों और आधुनिकता को ध्वस्त करती यह कृति अपने लिए अनन्त पाठों के लिए खुली ज़गह छोड़ती है जिसके बाद न सिर्फ़े हिन्दी या भारतीय कविता बल्कि वैश्विक कविता का स्वभाव बदल जायेगा, ऐसा विश्वास है। फिलहाल तो आलोचक इसके अपने-अपने पाठ को व्यक्त करने में लगे हैं और जिसके जितने पाठ हैं उतने ही बाघ। और उनके एक बाघ में कई-कई बाघ। बाघ से गुज़रना हर पाठक के लिए अपने स्वभाव, ज्ञान व संवेदना के अनुरूप बाघ से गुज़रना है। यह इस कृति की एक बड़ी सफलता है। हर पाठक के पास उसके अपने बाघ का आस्वाद है। बाघ का अपना अर्थ है अपनी छवियां हैं। बाघ से जुड़ी कथा परम्परा भारत में सुदीर्घ रही है और विश्व स्तर पर भी बाघ को लेकर रचनाएं होती रही हैं उसमें एक मील का पत्थर साबित हुई है केदारनाथ सिंह की 'बाघ'। और इस बाघ के आगे बाकी बाघों का तिलस्म कुछ कम हुआ है। किसी बाघ के इतने रूपाकार नहीं है। इतनी वैविध्यपूर्ण अर्थछवियां नहीं रही हैं। हर खण्ड में वे नये सिरे से जाल फेंकते और फिर समेट लेते हैं। हर बार जाल में एक नया बाघ फंसता है नये रूप-अर्थ-ध्वनि-भंगिमा के साथ। और वे उसे फिर आज़ाद छोड़ देते हैं। दरअसल इस लम्बी कविता में एक बिम्ब का जैविक हो उठना है। एक बिम्ब एक इतना शक्तिशाली हो उठना जिसके भरोसे कविताओं की एक शृंखला रची गयी है और जिसमें सांमजस्य बिठाकर या यह कहें कि कुछ संगतियों को जोड़कर एक लम्बी कविता का गठन कर लिया गया है। कविता में एक शक्तिशाली बिम्ब बाघ का एक जीते-जागते पशु में तब्दील जाने की विलक्षण घटना है और चूंकि वह बिम्ब है इसलिए उसमें रूप परिवर्तन की क्षमता पहले से है और उसमें प्रतिबिम्ब बन जाने की भी।चूंकि वह बिम्ब सो उसमें की तमाम विशेषताएं भी विद्यमान है और यह बिम्ब बिम्बत्व की अपनी सारी खूबियों से लैस, सो वह आदमी की संवेदना के करीब भी और वह एक ऐसे पुल के सृजन में कामयाब भी जो सृष्टि की समस्त इकाईयों के बीच वह साझेदारी स्थापित करने में लगा है जो कवि का अभिप्रेय है। केदार जी की कामनाओं, इच्छाओं अभिप्साओं का वाहक। केदार जी का बाघ उनकी संवेदना है। यह अनायास नहीं है कि प्यार तक को केदार जी ने बाघ कहा है। वह चिन्तित बाघ के मनुष्य के भविष्य को लेकर जो उनकी भी चिन्ता है। बाघ कवि का प्रवक्ता भी है और हरकारा भी। यहां वह बिम्ब नहीं रह गया है बिम्ब से बढ़कर सदैव साथ निभाने वाला एक सहचर। एक सीटी जो इसलिए बजती रहती है ताकि लोग चैन से सो सकें-'कि इस समय मेरी जिह्वा पर/जो एक विराट् झूठ है/वही है-वही है मेरी सदी का/सब से बड़ा सच/यह लो मेरा हाथ/इसे तुम्हें देता हूं।'(बाघ) यह केदार जी का हाथ है बाघ। जो अपने पीछे छोड़ है गया है उनके होठों पर थरथराहट-'और अपने पास रखता हूं/अपने होठों की/थरथराहट...../एक कवि को /और क्या चाहिए!'( बाघ)
एक कवि का सर्वस्व जनता के साथ है। यही उसका संतोष है कि उसने जो कुछ जिसके लिए किया उसी के हवाले कर दे और क्या चाहिए एक कवि को। और यह जिह्वा पर है वह उनका रचनामर्म नहीं है तो क्या है। और जो जिह्वा पर है वह कोई मामूली चीज़ नहीं है विराट् झूठ है। झूठ के साथ विराट् विशेषण को उन्होंने जोड़ा है तो झूठ वह बाघ है जिसके माध्यम से वे उसे विराट् को कहते हैं जो उन्होंने अर्जित किया है, और जो अर्जित किया है वह सदी का सबसे बड़ा सच है। इसलिए विराट् है, उसे कहने के बाद होठों पर रह गयी है एक थरथराहट। वह थरथराहट जो महाभारत में अर्जुन को उपदेश देने के बाद कहीं न कहीं ज़रूर होगी श्रीकृष्ण के होठों पर। श्रीकृष्ण ने उस युग का सबसे बड़ा सच अर्जुन से कहा था गीता से, वह भी रणक्षेत्र में, जहां हिंसा की प्रबल संभावना है। केदार जी भी अपने कथन के लिए हिंस्र पशु का सहारा लेते हैं लेकिन वह हिंस्र पशु महानायक रहा है भारतीय कथा साहित्य में। और भारत में नायकत्व के जो परम्परागत गुण हैं वे बाघ से प्रेरित रहे हैं। केदार जी ने अपनी बात कहने के लिए बाघ के नायकत्व को स्वीकार किया है। वे चाहते तो आसानी से बाघ को जैविक ही बने रहने देते जो उनके बिम्ब से उपजा था किन्तु ऐसा करना बाघ के शिकार जैसा ही था। उन्होंने बाघ को जैविक से फिर बिम्ब बनाकर उसे बचा लिया। और यही वह करिश्मा है कि वह बाघ पाठक के मन में अपना अलग-अलग रूपाकार लेता है। अपनी विभिन्न छवियों से रिझाता, डरता, भरमाता है। यह किस्सों से निकलकर आखेट का नया कौशल है बाघ के बिम्ब का जो, केदार जी ने उसे सिखाया है। यह कौशल उनकी लम्बी काव्य साधना से आया है। यह जो अनवरत यात्रा है वही उनके घुटनों में दर्द का कारण भी और वही यात्रा उनकी यात्रा में हासिल खुशी भी। यात्रा से जो तलवों में जलन है वही विचारों में धमक पैदा कर सकी है-'कि मेरी आत्मा में जो खुशी है/असल में वही है/मेरे घुटनों में दर्द/तलवों में जो जलन/मस्तिष्क में वही/विचारों की धमक।' (बाघ)
आधुनिकता को लेकर केदार जी शुरू से चौकन्ने रहे हैं और उन्होंने भारत की देशज आधुनिकता का अन्वेषण भी किया है इस क्रम में उन्होंने पाश्चात्य आधुनिकता से लगातार संवाद बनाये रखा है जिसका प्रमाण रिल्के, पाउण्ड, रेने शा जैसे कवियों पर लिखे निबंध, सामयिक टिप्पणियां, स्मृतिलेख, आत्मपरक लेख और साक्षात्कार आदि हैं। 'कब्रिस्तान में पंचायत' स्मरणधर्मी आलेखों के संग्रह में वे अपने गद्य की विलक्षण भंगिमा के साथ उपस्थित हैं जिसमें उनकी सोच, उनकी संवेदना और अनुभव जगत उनके स्मृति लोक से कई बार एकाकार होता नजर आता है तो कई बार वे समाज की मौजूदा तल्ख स्थितियों पर सार्थक टिप्पणी करते नजर आते हैं। यहां वे उस दायरे से बाहर भी निकलते दिखायी देते हैं जो किसी लेखक की दुनिया से जुड़ा हो। वे इसमें उस वृहत्तर समुदाय की उन चिन्ताओं से जुड़ते दिखायी देते हैं जो एक नागरिक की चिन्ताएं हैं। कहना न होगा कि इन आलेखों से कवि केदारनाथ सिंह की आंतरिक दुनिया में विस्तार के नये आयाम दिखायी देते हैं और वह समरसता टूटती है इन लेखों के पहले उनकी रचनाशीलता में व्याप्त थी। ये आलेख केदार जी का अपने संसार से और बाहर आने की घटना का साक्ष्य हैं। वे उन लोगों को और अधिक समझते दिखायी देते हैं, जो साहित्य की दुनिया में अमूर्तता की ओर बढ़ रहे थे। उन अप्रिय स्थितियों से उनका साबका इनमें होता दिखायी देता है जो इसके पूर्व यदाकदा था।
दक्षिण भारत के कुछ कालजयी रचनाकारों पर भी उन्होंने कलम चलायी है जिनमें अक्का महादेवी, अल्लामा प्रभु, विद्रोही संत कवि वसवन्ना, कुमारन आशान, दलित कविता के पितामह गुर्रम जाशुआ आदि भी शामिल हैं। पुश्किन, एब्तुशेंका की नयी कविताओं, जापानी कवि तोगे संकिची पर भी उन्होंने लिखा है। इन आलेखों को पढ़कर यह बात बार -बार मन में उठती है कि केदार जी की अन्तर्दृष्टि का विकास उस दिशा में हुआ है जहां वे चीज़ों में से उन तत्त्वों का सहज अन्वेषण कर लेते हैं जो पूरी मनुष्यता के लिए उपयोगी हैं। वे जानते हैं कि किन तत्त्वों के तार किससे मिलने हैं। वह कौन सा धागा है जो सारी चीजों को एक तरबीत देता है। ये अध्याय कहना न होगा कि दक्षिण और उत्तर भारत की कविता को एकसूत्रता में बांधते दिखायी देते हैं और भारतीय साहित्य का एक ऐसा खाका प्रस्तुत करते हैं जिसे विश्व साहित्य के समक्ष पूरे गौरव के साथ रखा जा सकता है।
(प्रकाशितः वागर्थ, मार्च 2009)

10 comments:

  1. बहुत बढिया शैली पसंद आई,आगे भी लिखे,
    आप का स्वागत करते हुए मैं बहुत ही गौरवान्वित हूँ कि आपने ब्लॉग जगत में पदार्पण किया है. आप ब्लॉग जगत को अपने सार्थक लेखन कार्य से आलोकित करेंगे. इसी आशा के साथ आपको बधाई.
    ब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं,
    http://lalitdotcom.blogspot.com

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  2. मुझे केदार जी का गीत टहनी के टूसे पतरा गये/पकड़ी के पात नये आ गये गीत बहुत पसंद है। शुरुआती दिनों में मैंने इसकी धुन भी बनायी थी और गाती थी। सुनती हूं कि वे भोजपुरी गीत भी लिखते हैं पर पढ़ने को नहीं मिले। मुझे उनके भोजपुरी गीतों का इन्तज़ार है।

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  3. Hriday ji aapke jaise shabd sadhak se man ki bat kahoon..aur yadi aap bura man gye to! itney pyare mitr ko khone ka jokhim nahi utha sakta..kedar ji par ye lekh bahut shandar hai bus vistar..

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  4. चिट्ठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. मेरी शुभकामनाएं.
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    दोस्ती पर उठे हैं कई सवाल- क्या आप किसी के दोस्त नहीं? पधारें- (FWB) [बहस] [उल्टा तीर]

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  5. बहुत अच्छा लेख है। ब्लाग जगत मैं स्वागतम्।
    http://myrajasthan.blogspot.com

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  6. हुज़ूर आपका भी एहतिराम करता चलूं.....
    इधर से गुज़रा था, सोचा सलाम करता चलूं

    www.samwaadghar.blogspot.com

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  7. प्रख्यात कवि को समाज के सामने लाने का बहुत अच्छा प्रयास ।
    बधाई व शुभकामनाएं ।

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